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श्रीप्रवचनसारटीका |
इसलिये साधुको योग्य है कि व्यवहारमें मग्न न होकर निरन्तर शुद्धात्म द्रव्यका भजन, मनन व अनुभव करे । यही मोक्ष-लाभका मार्ग है । जो व्यवहार ध्यान व भजन व क्रियाकांड जीव रक्षा 1 आदिमें ही उपयुक्त हैं परन्तु शुद्ध आत्मानुभव के उद्योगमें आलसी हैं वे कभी भी मुनिपदसे अपना स्वरूप प्राप्त नहीं कर सके, क्योंकि भाव ही प्रधान कारण । मुनिकी ध्यानावस्थाकी महिमा मूलाचारके अनगारभावना नामके अधिकारमें इसतरह बताई है । विधिणिदणिच्छितो चारपायार गोउरं तुंगं । खेती सुकद कवाडं तचणयर संजमारक्खं ॥ ८७७ ॥ रागो दोसो मोहो इंदिय चोरा य उज्जदा णिच्चं । णच एति पहं से सप्पुरिससुरक्खियं णयरं । ८७८
भावार्थ-साधुका तपरूपी नगर ऐसा दृढ़ होता है कि धैर्य संतोष आदिमें परम निश्चित जो बुद्धि सो उस तप नगरका दृढ़ कोट है । तेरह प्रकार चारित्र उसका बड़ा ऊंचा द्वार है | क्षमा भाव उसके बड़े दृढ़ कपाट हैं, इंद्रिय और प्राणसंयम उस नगरके रक्षक कोटपाल हैं । सम्यग्दृष्टी आत्माद्वारा तपरूपी नगर अच्छी तरह रक्षित किये जानेपर राग द्वेष मोह तथा इंद्रियोंकी इच्छारूपी चोर उस नगर में अपना प्रवेश नहीं पासक्ते हैं ।
जंह ण चलs गिरिरायो अवरुत्तरपुव्वद क्खिणेवाए । एवम लिदो जोगी अभिषवणं भायदे भाणं ॥ ८८४ ॥
भावार्थ - जैसे सुमेरु पर्वत पूर्व पश्चिम दक्षिण उत्तरकी पवनोंसे जरा भी चलायमान नहीं होता उसी तरह योगी सर्व परीषह व उपसर्गौसे व रागद्वेषादि भावोंसे चलायमान न होता हुआ निरंतर ध्यानका ध्यानेवाला होता है ॥ १४ ॥