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श्रीप्रवचनसारटोका ।
भावेति भावणरदा वइरगं वोदरागयाणं च । गाणेण दंसणेण य चरित्तजोएण विरिएण || ८०८ ॥ भागार्थ - - साधु महाराज विहार करते हुए शस्त्र लकड़ी आदि नहीं रखते व सर्व प्राणिमात्रपर समताभाव रखते हैं तथा सर्व लौकिक व्यापारसे रहित होकर आत्माके प्रयोजनको विचारते रहते हैं । वे साधु परम शांत कषाय रहित होते हैं, दीनता कभी नहीं करते, भूख प्यासार्दिकी बाधा होनेपर भी याचना आदिके भाव नहीं करते, उपसर्ग परिसह सहने में उत्साही रहते, समदर्शी होते, कछुके समान अपने हाथ पगों को संकुचित रखते हैं, लोभी नहीं होते, मायाजाल रहित होते हैं तथा काम भोगादिके पदार्थों में आदरभाव नहीं रखते हैं । वे निग्रन्थ साधु बारह भावनाओं में रत रहकर अपने ज्ञान दर्शन चारित्रमई योग तथा वीर्यसे वीतराग जिनेन्द्रोक वैराग्यकी भावना करते रहते हैं ॥ १३ ॥
उत्थानिका- आगे कहते हैं कि मुनिपदकी पूर्णताके हेतुसे साधुको अपने शुद्ध आत्मद्रव्य में सदा लीन होना योग्य है । चरदि णिव हो णिच्च समणो णाणन्मि देण ह । पदो मूलगुणेसु य जो सो पडिपुण्ण सामण्णो ॥ १४ ॥ चरति निवद्धो नित्यं श्रमणो ज्ञाने दर्शनमुखे । प्रयतो मूलगुणेषु च यः स परिपूर्ण श्रामण्यः ॥ १४ ॥
अन्वय सहित सामांन्या --- ( जो समणो ) जो मुनि ( दंसणहम्म णाणम्मि) सम्यग्दर्शनको मुख्य लेकर सम्यग्ज्ञान में ( णिच्च वडो) नित्य उनके आधीन होता हुआ (य मूलगुणेसु पयदो ) और मूलगुणोंमें. प्रयत्न करता हुआ (चर) आचरण करता है ( सो पडिपुण्णसामण्णो ) वह पूर्ण - येति होजाता है ।