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तृतीय खण्ड।
[६३ तथा मोक्षमार्गका सच्चा स्वरूप प्रगटकर रत्नत्रय धर्मको प्रभावना करता है। .. श्रीमूलाचारजी अनगारभावना अधिकारमें साधुओंके विहार सम्बन्धमें जो कथन है उसका कुछ अंश यह है।
गामेयरादिवासो णयरे पंचाहवासिणो धीरा । सवणा फोसुविहारो विवित्तएगंतवासीय ॥ ७८५ ॥
साधु महाराज जो परम धीरवीर, जन्तु रहित मार्गमें चलनेवाले व स्त्री पशु नपुंसक रहित एकांत गुप्त स्थानमें वसनेवाले होते हैं। किसी नाममें एक रात्रि व कोट सहित नगरमें ६ दिन ठहरने हैं जिससे ममत्त्व न बढ़े व तीर्थयात्राकी प्राप्ति हो ।
सज्झायमाणजुत्ता त्ति ण सुर्वति ते पयाम तु। - सुत्तत्थं चितंता णिहाय वसण गच्छति ॥ ७६४ ॥ .
भावार्थ-साधु महाराज शास्त्र स्वाध्याय और ध्यान में लीन ' रहते हुए रात्रिको बहुत नहीं सोते हैं । पिछला व पहला पहर रात्रिका छोड़कर बीचमें कुछ आराम करते हैं तो भी शास्त्रके अर्थको विचारते रहते हैं। निद्राके वश नहीं होते हैं।
वसुधम्मिवि विहरंता पीडं ण करेति कस्सइ कयाई । जोवेनु दयावण्णा माया जह पुत्तभंडेनु ।। ७६८ ॥
भावार्थ-पृथ्वीमें भी विहार करते हुए साधु महाराज किसी जीवको कभी भी कष्ट नहीं देते हैं-वे जीवोंपर इसी तरह दया रखते हैं जैसे माता अपने पुत्र पुत्रियोंपर दया रखती है।
णिक्खित्तसत्थदंडा समणा सम सव्वंपाणभूदेसु।' . अप्पट्ट चितंता हवन्ति अन्वावडा साहू ॥ ८०३ ॥
उबसवादीणमणा उवेक्खसीला हवंति मज्भत्था.। णिहुदा अलोलमसठा अविमिया कामभोगेषु ॥ ८०४ ॥