________________
१०२ श्रीमाणिक्यनन्दिस्वामिविरचिते परीक्षामुखे.---
अर्थ- मुग्धबुद्धि के प्रति 'धूम' हेतु इसलिये सन्दिग्धासिद्ध है कि उसे भूतसंघात में वाष्पादि देखने से सन्देह हो जाता है; कि यहां भी अग्नि है अथवा होगी ॥२६॥
संस्कृतार्थ--मुग्धबुद्धिम्प्रति घूमहेतुरतः स्वरूपासिद्धो हेत्वाभासो विद्यते, यतस्तस्य भूतसंघाते वाष्पादिदर्शनात् सन्देह उत्पद्यते । यदत्र बह्निः वर्तते, वर्तेत वा ॥२६॥
__विशेषार्थ--भूतसंघात=चूल्हे से उतारी हुई बटलोई । उसमें पृथिवी, जल, अग्नि, वायु चारों ही रहते हैं और भाप भी निकलती रहती है ॥२६॥
असिद्धहेत्वाभास का भेदान्तर-- सांख्याम्प्रति परिणामी शब्दः कृतकत्वात् ॥२७॥
अर्थ--सांख्य के प्रति यह कहना कि शब्द परिणामी होता है, क्योंकि वह किया जाता है । यह हेतु सांख्य के प्रति प्रसिद्ध हेत्वाभास है ॥२७॥
संस्कृतार्थ--परिणामी शब्द: कृतकत्वादिति कथनं सांख्यम्प्रत्यसिद्धो हेत्वाभासो विद्यते ॥२७॥
उपर्युक्त सत्ताइसवें सूत्र के कथन की पुष्टि--- तेनाशातत्वात् ॥२६॥
अर्थ---सांख्य कृतकता (कृतकपने) को मानता ही नहीं है, क्योंकि उसके यहां प्राधिर्भाव और तिरोभाव ही प्रसिद्ध हैं, उत्पत्ति और विनाश नहीं । इसलिये शब्द का कृतकपना उसकी दृष्टि में प्रसिद्ध हेत्वाभास है ॥२८॥ ___संस्कृतार्थ-सांख्य सिद्धान्ते प्राविर्भावतिरोभाषावेव प्रसिद्धी, नोत्पत्ति विनाशी । नतः शब्दस्य कृतकत्वं तदृष्टी प्रसिद्धो हेत्वाभासो जायते ॥२८॥