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श्रीमाणिक्यनन्दिस्वामिविरचिते परीक्षामुखे
अर्थ-दूसरे पुरुष के ज्ञान की तरह अस्वसम्बिदितज्ञान, पूर्व में जाने हुये पदार्थ के ज्ञान की तरह गृहीतार्थज्ञान, चलते हुये पुरुष के तृणस्पर्श के ज्ञान की तरह दर्शन, यह स्थाणु है या पुरुष ? ऐसे ज्ञान की तरह संशयज्ञान, सीप में चांदी के ज्ञान की तरह विपर्ययज्ञान और चलते हुये के तृणस्पर्श के ज्ञान की तरह अनध्यवसाय अपने-अपने विषय को निश्चय रूप से नहीं जानते इसलिये वे प्रमाणाभास हैं ॥४॥
__संस्कृतार्थ-यथा पुरुषान्तरज्ञानं, धारावाहिज्ञानं, गच्छत्तणस्पर्शज्ञानं तथा स्थाणुपुरुषज्ञानम् इत्यादिज्ञानानां स्वस्वविषयनिश्चायकत्वाभावेन प्रमाणाभासत्वमुत्पद्यते तथा अस्वसम्बिदितादिज्ञानानामपि प्रमाणाभासत्वं सिध्यति ॥४॥
सन्निकर्ष के प्रमाणपने का दृष्टान्त से निषेध-- অনুষঙ্গী ভয় আঁকাইভ ।
अर्थ-जिस प्रकार द्रव्य में चक्षु और रस का संयुक्तसमवाय होता हुश्रा भी ज्ञानरूपी फल को पैदा नहीं करता है, उसी प्रकार द्रव्य में चक्षु और रूप का संयुक्तसमवाय भी ज्ञानरूपी फल को पैदा नहीं कर सकता है, इसलिये सन्निकर्ष प्रमाण नहीं है ।।५।
संस्कृतार्थ- यथा घटपटादिपदार्थेषु चक्षुरसयोः संयुक्तसमवायाख्यसन्निकर्षः विद्यमानोऽपि न प्रमाणं तस्याचेतनत्वेन प्रमितिक्रियाप्रति करणत्वाभात् । किञ्च असन्निकृष्टस्यैव चक्षुषो रूपजनकत्वं दृश्यते, अप्राप्यकारित्वात्तस्य । विशेषश्चात्र न्यायदीपकाग्रन्याद् अग्रिमलेखमालया वा विज्ञेयः ॥५॥
प्रत्यक्षाभासलक्षणम्, प्रत्यक्षाभास का लक्षण--- কাজে ম না,
খ্রীকাৰু জুজनाद बहिनविज्ञानवत् ॥६॥