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श्रीमाणिक्यनन्दिस्वामिविरचिते परीक्षामुखे
अर्थ-गुरुपरम्परा से और भी जो साधन (हेतु) सम्भव हो सकते हों उनका पूर्वोक्त साधनों में ही अन्तर्भाव करना चाहिये ॥८६॥
संस्कृतार्थ-गुरुपरम्परया सम्भवन्ति भिन्नानि साधनानि पूर्वोक्तसाधनेष्वेवान्तर्भावनीयानि ॥८६॥
पूर्वानुक्त हेतु का प्रथमोदाहरणअभूदत्र चक्र शिवकः स्थासात् ॥८॥
अर्थ-इस चके पर शिवक हो गया है, क्योंकि स्थास मौजूद है। यह स्थासरूपहेतु परम्परा से शिवक का कार्य है, साक्षात नहीं, साक्षात् कार्य तो छत्रक है। इस प्रकार यहाँ यह हेतु 'कार्यकार्य' हेतु हुआ।
संस्कृतार्थ---प्रभूदत्र चक्रे शिवकः स्थासात् । अत्र स्थासरूपहेतु : परम्परया शिवककार्य विद्यते; साक्षान्नो, साक्षात्कार्य तु छत्रकं विद्यते । एवमत्रायं स्थासादिति हेतुः कार्यकार्यहेतु विद्यते ॥८७।।
विशेषार्थ-शिवक, छत्रक, स्थास, कोश और कुशूल आदि कुम्हार चाक की माटी के क्रमशः नाम हैं ॥८७॥ कार्यकार्यहेतु का अविरुद्ध कार्योपलब्धिहेतु में अन्तर्भावकार्य कार्य विरुद्ध कार्योपलब्धौ ॥१८॥
अर्थ --- कार्य के कार्यरूप हेतु का (परम्पराकार्यहेतु का) अवि. रुद्ध कार्योपलब्धि में अन्तर्भाव होता है ।।८।।
संस्कृतार्थ- कार्यकार्ये (परम्पराकार्य) रूपहेतु रविरुद्ध कार्योपलब्धिहेतावन्तर्भवति ॥८॥ कार्यकार्यहेतु का अविरुद्ध कार्योपलब्धि में अन्तर्भाव की पुष्टि---
অল্প যাত্ম ফাক্ষীভল, ঘূৰিকাৰ । কাৰিা অিকান্তিী অথাৎ