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न्यायशास्त्रे सुबोषटीकायां तृतीयः परिच्छेदः।
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स्मृतेः दृष्टान्तः, स्मृति का दृष्टान्त
सा देवदत्तो यथा ॥४॥ अर्थ-जैसे वह देवदत्त ।
विशेषार्थ-देवदत्त को पहिले देखा था और धारणा भी कर ली थी, इसके बाद फिर कभी मन में याद आया कि 'वह देवदत्त' । इसी को स्मृति कहते हैं।
प्रत्यभिज्ञान का स्वरूप वा कारण
दर्शनस्मरणकारण संकलनं प्रत्यभिज्ञानम् । तदेबेवं, तत्सदृशं, तद्विलक्षणं, तत्प्रतियोगीत्यादि ॥ ५॥
अर्थ- वर्तमान का प्रत्यक्ष और पूर्वदर्शन का स्मरण है कारण जिसमें ऐसे जोडरूप (मिले हुए) ज्ञान को प्रत्यभिज्ञान कहते हैं । उसके एकत्व, सादृश्य, वैलक्षण्य और प्रातियोगिक ये चार भेद हैं । १- यह वही है । २-यह उसके समान है । ३-यह उससे विलक्षण है । और ४यह उसका प्रतियोगी है । उन चारों में क्रमशः इस प्रकार प्रतिभास होता
___ संस्कृतार्थ- दर्शनं च स्मरणं च दर्शनस्मरणे, ते कारणे यस्य तत्तथोक्तम् । तथा च दर्शनस्मरणहेतुकत्वे सति संकलनात्मकज्ञानत्वं प्रत्यभिज्ञानत्वम् । तच्चैकत्वं, सादृश्य, वैलक्षण्यं, प्रातियोगिकञ्चेति चतुविधम् । तदेवेदमित्येकत्वप्रत्यभिज्ञानम् । तत्सदशमिति सादृश्यप्रत्यभिज्ञानम् । तद्विलक्षणमिति वैलक्षण्यप्रत्यभिज्ञानम् । तत्प्रतियोगीति प्रातियौगिकप्रत्यभिज्ञानम् ॥ ५॥
विशेषार्थ- वर्तमान में किसी वस्तु को देखकर और उसे ही पहले देखा था उसकी याद कर 'यह बही है' ऐसा जानना एकत्वात्यभिज्ञान है । वर्तमान में किसी वस्तु को देखकर उसके समान वस्तु पहले देखी थी उसको याद कर 'यह उसके समान है' ऐसा जानना सादृश्यप्रत्यभिज्ञान है। वर्तमान में किसी वस्तु को देखकर उससे विलक्षण वस्तु पहिले देखी