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श्रीमाणिक्यन न्दिस्वामिविरचिते परीक्षामुख –
प्रतसमस्वज्ञानावरणादिकर्मत्वात् इन्द्रियागोचरत्वाच्च साकल्येन निर्मलं जायते तन्मुख्यप्रत्यक्षं पारमार्थिकप्रत्यक्षं वा प्रोच्यते इति भावः ॥ पारमार्थिकप्रत्यक्ष के पूर्ण वैशच में हेतु - सावरणत्वे करणजन्यत्वे च प्रतिबन्धसम्भवात् ॥१२॥ पर्थ - जिस ज्ञान के आवरणसहितपना और इन्द्रियजन्यपना होता है उसमें प्रतिबन्ध ( व्याघात) सम्भव होता है इसलिये जो निशवरण और अतीन्द्रिय होता है वही मुख्य प्रत्यक्ष है ॥१२॥
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संस्कृतार्थ -- सावरणत्वे करणजन्यत्वे च सत्येक ज्ञाने प्रतिबन्ध : सम्भवति । श्रतो यज्ज्ञानं निरावरणमतीन्द्रियं वा जायते तदेव मुख्यप्रत्यक्षमवगन्तव्यम् ॥ १२ ॥
रहता है था
पदार्थ से
से किसी
विशेषार्थ – जिस ज्ञान को रोकते याला कर्म मौजूद जो इन्द्रियों की सहायता से उत्पन्न होता है उस ज्ञान में मूर्त रुकावट सम्भव होती है । जैसे जब हम अपने इन्द्रिजन्य ज्ञान पदार्थ को जानना चाहते हैं तो वहीं तक जान सकते हैं जहाँ तक के जानने की हमारी इन्द्रियों में शक्ति है । अथवा वहीं तक जान सकते हैं जहाँ तक कि कोई दीबाल वगैरह रोकने वाला नहीं होता । तात्पर्य यह है कि जिसका कोई भी रोकने वाला नहीं है वही ज्ञान मुख्य प्रत्यक्ष है ।
इति द्वितीयः परिच्छेदः समाप्तः ।