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वायशास्त्रे सुबोषटीकायां द्वितीयः परिच्छेदः। स्पष्टत्वमिति । प्रतिपादितं च भीमट्टाकलंकदेवःप्रत्यक्षलक्षण प्राहुः, स्पष्ट साकारमजसा, इति । तथा चानुमानं-प्रत्यक्षं विशदज्ञानात्मकमेवा, प्रत्यक्षत्वात्, परोक्षवत् । प्रत्यक्ष मिति धमिनिर्देशः विशदज्ञानात्मक साध्य, प्रत्यक्षत्वादिति हेतुः, परोक्षवदिति दृष्टान्तः । तथाहि-यन विशदज्ञानात्मकं तन्न प्रत्यक्ष, यथा परोक्ष, प्रत्यक्षं च विवादापलं, तस्माविशदज्ञानात्मकमिति ॥३॥
विशेषार्थ-प्रत्यक्ष प्रमाण की निर्मलता अनुभव से जानी जाती है । वह अनुभव इस प्रकार से होता है। किसी व्यक्ति को किसी ने शब्दों के द्वारा अग्नि का ज्ञान करा दिया तब उस व्यक्ति ने सामान्यरूप से अग्नि को जाना।
इसके बाद किसी दूसरे मनुष्य ने उसी व्यक्ति को घूममात्र दिखा कर अग्नि का ज्ञान कराया। तब भी उस व्यक्ति ने जिस जगह धूमपा उस जगह धूम से अग्नि का निश्चय किया, प्रत्यक्ष नहीं देखी। - इसके बाद किसी तीसरे मनुष्य ने अग्नि का जलता हुआ अंगार लाकर उसके सामने रख दिया, तब उस पुरुष को बिलकुल निर्मल (स्पष्ट) ज्ञान हो गया कि अग्नि इस प्रकार, ऐसे रंग की गर्म होती है। इस तीसरी बार हुये ज्ञान में पहिले दो बार हुये ज्ञानों से विशेषता है, उसी को विशदता या निर्मलता कहते हैं । जिस ज्ञान में ऐसी विशखता होती है उसे प्रत्यक्षा कहते हैं ॥३॥
वैशवस्य लक्षाणम्, वैशन का लक्षणগ্রায়াল ছিল এ অবিল
অর্থ—দুই যাল জী অাবা ই বিল। দীল জাল দুঙ্খ বৰা के प्राकार और वर्ण प्रादि की विशेषता से होने वाले प्रतिमासको बैख कहते हैं ॥४॥