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२४ धीमाणिक्यान्दिस्वामिविरचिते परीक्षामुखे
और अनध्यवसायरहित होकर वस्तु के स्वरूप को जानता है वह प्रमाण कहलाता है ॥२॥
प्रमाणस्य निश्चायकत्वम् , प्रमाण का निश्चायक पनाমহিলা কাহীবিভাজা । ২।
अथं-वह प्रमाण निश्चयात्मक है। संशय, विपर्यय तथा अनध्यबसाय रहित होने से, अनुमान की तरह ।। ३ ।।
संस्कृतार्थ-यथा समारोपविरुद्धत्वाद् बौद्धाङ्गीकृतमनुमानं तन्मते निश्चयात्मकं, तथाईन्मते समापरोपविरुद्धत्वात्प्रमाणमपि निश्चयात्मकम् ॥ ३ ॥
विशेषार्थ-बौद्ध अनुमान को पदार्थों को निश्चय करने वाला मानता है और प्रत्यक्ष को निर्विकल्पक अर्थात् अनिश्चायक (निश्चय नहीं करने वाला ) मानता है । परन्तु जैनों ने सभी प्रमाणों को स्व और पर का निश्चायक ( निश्चय करने वाला ) माना है । यही बतलाने के लिये बौद्धों के द्वारा माने हुये अनुमान का दृष्टान्त देकर सभी प्रमाणों को निश्चयात्मक सिद्ध किया गया है । जब कि अनुमान को निश्चयात्मक माना है, तो प्रत्यक्ष को भी निश्चयात्मक मानना चाहिये। क्योंकि जो किसी पदार्थ का तथा अपना निर्णय निश्चयरूप से नहीं करता वह प्रमाण कैसे हो सकता है?
१-दो तरफ ढलता हुआ निर्णयरहित (अनिश्चित) ज्ञान संशय कहलाता है । जैसे यह सीप है या चांदी, डूंठ है या पुरुष इत्यादि । २उल्टाज्ञान विपर्यय कहलाता है। जैसे रस्सी में सांप का या सुवर्ण में पीतल का ज्ञान ! ३–अनिश्चित तथा विकल्प ( इच्छा ) रहित ज्ञान अनध्यवसाय कहलाता हैं। जैसे चलते समय स्पर्श हुये पत्थर या तृण घाणेरह में कुछ है' ऐसा ज्ञान।।३।।