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मित्र-भेद
३५.
" दैव-इच्छा से यदि सत्पुरुषों के साथ एक बार भी समागम हो
उसके लिए फिर
जाता है; पड़ती ।
जाय तो वह अत्यन्त मजबूत बन नित्य परिचय की आवश्यकता नहीं अनेक शास्त्रों के पढ़ने से ठोस बुद्धि वाले संजीवक ने थोड़े ही दिनों में मूर्ख पिंगलक को बुद्धिमान बना दिया और उसे जंगलीपन से अलग करके ग्राम्य-धर्म में लगा दिया । बहुत कहने से क्या, रोज पिंगलक और संजीवक अलग में सलाह करते थे और दूसरे जीव दूर ही रहते थे । करटक और दमनक का भी वहाँ प्रवेश न था । सिंह के शिकार न करने से भूखे पशु एक ओर जाने लगे
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कहा भी है.
"पेड़ ऊँचा अथवा पुराना भी हो, लेकिन अगर सूख जाय और फलहीन हो जाय तो पंछी उसे छोड़कर दूसरी जगह चले जाते हैं । उसी प्रकार सेवकजन कुलीन और उन्नत होते हुए भी सेवाका फल न देने वाले राजा को छोड़कर दूसरी जगह चले जाते हैं । और भी
“सम्मानयुक्त, कुलीन और भक्ति-परायण सेवक भी रोजी टूट जाने पर राजा को छोड़ देते हैं ।
और भी,
" जो राजा सेवकों की तनख्वाह देने में देर नहीं करता उससे तिरस्कृत होने पर भी सेवक उसे कभी नहीं छोड़ते हैं ।
केवल सेवक ही ऐसे नहीं होते, पर सारे संसार में प्राणि-मात्र आजीविका के लिए साम आदि उपायों द्वारा प्रयत्न करते हुए दिखाई देते हैं । जैसे कि
"जलचर जिस तरह दूसरे जलचरों पर जीते हैं । उसी प्रकार देशों पर राजा, रोगियों पर वैद्य, ग्राहकों पर व्यापारी, मूर्खो पर पंडित, प्रमादी मनुष्यों पर चोर, गृहस्थों पर भिक्षु, कामीजनों पर वेश्याएं, और सब लोगों पर