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पञ्चतन्त्र
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है । कमल के पत्ते पर पड़े हुए पानी की तरह वह अनगढ़ी है। हवा की चाल की तरह वह चपल है । बदमाशों के साथ की तरह वह अस्थिर है । सर्प की तरह वह दुरुपचार है । संध्याकालीन बादल की तरह उसमें क्षणिक ललाई है । जल के बुलबुलों की तरह वह स्वभाव से ही नाशवान है । शरीर की प्रकृति की तरह वह कृतघ्न है तथा सपने में मिली हुई धनराशि की तरह क्षण में दिखलाई देकर नष्ट हो जाने वाली है । और भी
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" जैसे ही राज्याभिषेक होता है वैसे ही बुद्धि कठिनाइयों के सुलझाने में लग जाती है । राज्याभिषेक के समय पानी के घड़े पानी के साथ विपदाएँ भी गिराते हैं ।
आपत्ति में कोई वस्तु बड़ी नहीं है । कहा भी है-
"राम का वनवास, बलि का बांधा जाना, पांडवों का वन-गमन, यादवों की मृत्यु, अर्जुन का नाट्याचार्य होना, नल राजा का राज्यच्युत होना, लंकेश्वर का पतन, काल वश सब लोग यह सहते हैं, कौन किसकी रक्षा कर सकता है ?
"इन्द्र के मित्र दशरथ आज स्वर्ग में कहां हैं ? समुद्र की लहरें बांधने वाले राजा सगर आज कहां हैं ? हाथ से पैदा वैन्य आज कहां है? कहां हैं सूर्य पुत्र मनु ? बलवान काल ने इन सब को जगा कर पुनः उनकी आंखें बन्द कर दीं । "त्रिलोक को विजय करने वाले मांधाता सत्यव्रत कहां हैं ? देवताओं के राजा नहुष कहां हैं ? विद्वान् कृष्ण कहां हैं ? इन्द्रासन पर बैठने वाले रथ और हाथी वालों को महात्मा काल ने ही बनाया और उसी ने उन्हें नष्ट कर दिया । और भी
कहां गए ? राजा
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" वही राजा है, वे ही मंत्री हैं, वे ही स्त्रियां हैं, वे ही कानन वन हैं, पर वे सब काल की क्रूर दृष्टि से नष्ट हो गए।"
इस तरह मतवाले हाथी के कान की तरह चंचल राजलक्ष्मी को पाकर न्याय - तत्पर होकर आप राज भोगिए ।"