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पञ्चतन्त्र " इसलिए तुम मेरे बंधन से पैदा हुए द्वेष को छोड़कर धर्म में मन
लगाकर यथाविधि इसकी सेवा करो। "उसकी धर्मयुक्तियों से मिली हुी बात सुनकर बिना डर के वह
कबूतर शिकारी के पास जाकर बोला, "भद्र, तेरा स्वागत है। मुझे कह कि क्या करना चाहिए। अपने घर में रहते हुए तुझे संताप नहीं करना चाहिए। " उस पक्षी की बातें सुनकर शिकारी ने कहा, "हे कबूतर, इस
भयंकर शीत से तू मेरी रक्षा कर।" " उस कबूतर ने अंगारा लाकर सूखे पत्तों में डाल दिया और उसे जल्दी से जलाया। "इस तरह अच्छी तरह से आग जलाकर उसने शरणागत से कहा, “ अब निर्भय होकर तू अपने हाथ पैर सेंक। मेरे पास कोइ ऐसा वैभव नहीं है जिससे मैं तेरी भूख दूर कर सकूँ। "कोई सहस्रों का पालन करते हैं तो कोई सैकड़ों का, और कोई दसियों का। पर मैं पापी स्वयं अपना भी पालन करने में असमर्थ हूं। "एक अतिथि को भी अन्न देने में जो समर्थ नहीं है उसके कष्टदायी घर में रहने से क्या फायदा। " इसलिए इस कष्टकर शरीर का मैं उपयोग करूंगा जिससे फिर यह न कहने को हो कि अतिथि के आने पर यह काम नहीं आया। 'उसने अपनी निन्दा की पर शिकारी की नहीं। और फिर कहा, "क्षणभर ठहर, मैं अपने मांस से तेरा संतोष करूंगा"। "यह कह कर प्रसन्नचित्त से उस आग की परिक्रमा करके
अपने घर की तरह वह उसमें घुस गया। ''वह शिकारी उस कबूतर को आग में गिरा देख कर अत्यन्त
दया से पीड़ित हो कर बोला"जो आदमी पाप करता है उसे अपनी देह नहीं प्यारी होती।