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काकोलूकीय
१६७ बदतमीजी की बातें सुनकर उसे मारने को तैयार हो गए। इस पर मेघवर्ण ने कहा, “अरे तुम सब भाग जाओ, मैं स्वयं ही दुश्मन का साथ देने वाले इस दुरात्मा को दंड दूंगा।" यह कहकर वह स्थिरजीवि के ऊपर चढ़ बैठा और चोंच की हल्की चोटों से उसे लोहू-लुहान करके अपने परिवार के सहित अपने इच्छित स्थान को चला गया। उसी समय शत्रु के भेदिये का काम करती हुई कृकालिका ने उस मंत्री के ऊपर आ पड़े दुःख तथा मेघवर्ण के चले जाने का समाचार उल्लुओं के राजा से कहा । “तुम्हारा दुश्मन डरकर अपने साथियों के साथ कहीं भाग गया है।" यह सुनकर सूर्यास्त के बाद उल्लुओं का राजा भी अपने मंत्रियों और साथियों के साथ कौओं को मारने के लिए निकल पड़ा और बोला , "अरे ! जल्दी करो, जल्दी करो डरकर भागता हुआ दुश्मन बड़े ही पुण्य से मिलता है। कहा है कि
"शत्रु अगर भागता हो तो उसका एक भेद हाथ में आता है और दूसरा भेद अगर वह कोई दूसरे स्थान में ठहरता हो। भागने की
घबराहट के कारण वह राज-सेवकों के वश में होता है।" । इस तरह बातचीत करते हुए वे सब बरगद के नीचे चारों ओर से घेरकर खड़े हो गए। पर जब कोई कौआ नहीं दिखाई पड़ा तब पेड़ की डाल की फुनगी पर बैठकर हँसी-खुशी तथा बंदीजनों से प्रशंसित उलूक-राज ने कहा, "अरे! ये कौए किस रास्ते से भाग गए, उनके उस रास्ते की तलाश करो। वे जब तक किले में पनाह नहीं ले लेते, तभी तक अगर मैं उनके पीछे गया तो उन्हें मार सकूँगा । कहा है कि
“विजयी द्वारा घेरे में भी दुश्मन मारा नहीं जा सकता, अगर वह सरो-सामान से लैस किले-बंदी करके बैठा हो तो कहना ही
क्या है ?" इस प्रस्ताव पर चिरंजीवि ने सोचा , “जब तक मेरे शत्रु मेरा हाल जानकर मेरे पीछे नहीं आते तब तक मुझे भी कुछ न करना चाहिए। कहा भी है कि
"काम शुरू ही नहीं करना, यह बुद्धि का पहला लक्षण है, और