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पञ्चतन्त्र
"जिस राजा की भमि शत्रु के लहू से और उनकी स्त्रियों के आंसू
से नहीं सिंचती, उसके जीवन की क्या प्रशंसा ?" इस प्रकार संजीवि ने लड़ाई की सलाह दी। उसे सुनकर मेघवर्ण ने अनुजीवि से कहा , “भद्र! तुम भी अपने मन की बात कहो।" उसने उत्तर दिया , "देव ! यह दुष्ट बल में अधिक और बिना मर्यादा का है। इसलिए इसके साथ संधि या लड़ाई करना उचित नहीं है। पीछे हटना ही उसके योग्य है। कहा है कि
'बल में बढ़-चढ़कर, दुष्ट और मर्यादा रहित शत्रुके साथ पीछे हटे बिना सुलह अथवा लड़ाई करने वाला प्रशंसनीय नहीं गिना जाता। "पीछे हटना दो तरह का होता है। एक भय उपस्थित होने पर प्राण
और धर्म की रक्षा के लिए और दूसरा विजय की कामना वाले के प्रयाण लक्षण रूपी। "पराक्रमशील विजयी को शत्रु के प्रदेश पर कार्तिक अथवा चैत्र में धावा बोलना प्रशंसनीय है, किसी दूसरे समय नहीं। "संकट में पड़े हुए तथा अनेक दोषों वाले शत्रु के ऊपर आक्रमण
करने के लिए सब समय ठीक है। "राजा को शूर , विश्वासपात्र, और महाबलवान सैनिकों के साथ अपनी जगह को दृढ़ करने के बाद अपने गुप्तचरों को पहले से ही आगे फैलाकर शत्रु के देश के ऊपर आक्रमण करना चाहिए। "रास्ता , रसद , पानी और अनाज के साधन के बिना जो शत्रु __ के देश के ऊपर आक्रमण करता है, वह फिर कर अपने राष्ट्र को
वापस नहीं आता। इसलिए हमारे लिए हटना ही ठीक है । - बलवान पापी के साथ न लड़ना चाहिए, न संधि करनी चाहिए। काम में फायदा न देखकर बद्धिमान भागना ही ठीक मानते हैं। कहा भी है कि