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मित्रमंप्राप्ति हुए मेरे लिए विश्रांतिरूप मित्र को भी हर लिया ? फिर मंथरक-जैसा दूसरा मित्र नहीं हो सकता। कहा है कि
"गरीबी के समय अच्छा फायदा, गुप्त बात कहना और आपत्ति
से समय मुक्ति, ये तीनों मित्रता के फल हैं। इसके बाद मेरा कोई दूसरा ऐसा मित्र नहीं है । अरे ! विधाता, मेरे ऊपर दुःख के बाणों की निरन्तर वर्षा क्यों कर रहा है ? क्योंकि पहले तो मेरे धन का नाश हुआ, फिर मैं अपने परिवार से बिछुड़ा, फिर मुझे देश छोड़ना पड़ा और अब मित्र का वियोग हो रहा है । अथवा सारे प्राणियों के जीवन का यही धर्म है। कहा भी है
"शरीर विनाशके पास ही रहता है, सम्पत्ति पल-भर में नष्ट हो जाने वाली है, संयोग के साथ वियोग होता है, ये सब बातें प्राणियों पर
लागू हैं। और भी
"एक चोट पर फिर से दूसरी चोटें लगती हैं, धन की कमी होने पर भूख बढ़ती है, आपत्तियों में वैर उत्पन्न होता है और जहाँ कमजोरी होती है वहां अनेक अनर्थ पैदा होते हैं। अहो ! किसी ने ठीक ही कहा है कि "भय प्राप्त होने पर रक्षा-स्वरूप तथा प्रीति और विश्वास का
स्थान, ऐसे 'मित्र' ये दो अक्षर रूपी रत्न किसने बनाए होंगे ?" इसी बीच में चित्रांग और लघुपतनक रोते हुए वहां आए। हिरण्यक ने उनसे कहा, "अरे ! वृथा रोने से क्या मतलब ? जब तक कि मंथरक आंखों से ओझल न हो जाय, उसी बीच में उसे छुड़ाने का उपाय सोचना चाहिए। कहा है कि
"दुःख आने पर मोहवश होकर जो केवल विलाप करता है, वह रोना तो बढ़ाता ही है, पर साथ-ही-साथ दुःखसे पार भी नहीं पा सकता। नीति-शास्त्र के पंडितों ने आपत्ति की एक ही दवा कही है, वह है आपत्ति काटने का प्रयत्न और विषाद का त्याग ।