________________
मित्र-संप्राप्ति
१२६
की , रईस और गरीब की , सौतों की , सिंह और हाथी की, शिकारी और हरिनों की , श्रोत्रिय और क्रियाभूष्ट की, मूर्ख और पंडित की, पतिव्रता और कुलटा की, सज्जन और दुर्जन की । इसमें किसी ने किसी का बिगाड़ा नहीं है, फिर भी एक-दूसरे को सताया करते हैं।" कौए ने कहा, “यह वैर अकारण है। मेरी बात सुन,
"कारण से ही मित्रता होती है और कारण से ही शत्रुता । इसलिए
बुद्धिमानी से संसार में मित्रता ही करनी चाहिए, शत्रुता नहीं। इसलिए मित्र-धर्म के नाते तू मेरे साथ मुलाकात कर।" हिरण्यक ने कहा , “तेरे साथ मेरी मित्रता क्या ? तू नीति का सरर सुन--
"मित्र होते हुए भी एक बार दुश्मनी होने वाले के साथ जो
सुलह करने की इच्छा रखता है वह खच्चरी के गर्भ की तरह . मृत्यु का भागी होता है।
‘अथवा मैं गुणवान हूं, इससे मेरे साथ कोई दुश्मनी नहीं करेगा,' ऐसा संभव नहीं है ! कहा है कि--
'व्याकरण के बनाने वाले पाणिनि के प्रिय प्राणों को सिंह ने हर लिया। मीमांसा शास्त्र के कर्ता जैमिनि मुनि को हाथी ने एकाएक कुचल डाला, छंद-शास्त्र के ज्ञान में समुद्र के समान पिंगल को समुद्र के किनारे मगर ने मार डाला, अज्ञान से जिनका चित्त ढंका हुआ है, ऐसे अत्यन्त क्रोधी पशु-पक्षियों को गुणों से
क्या काम ?" कौए ने कहा , “ यह बात तो है, पर फिर भी सुन-- “उपकार से लोगों के साथ मित्रता होती है, किसी निमित्त से पशुपक्षियों की होती है, भय और लालच से मूों की मित्रता होती है, और केवल भेंट से ही सज्जनों की मित्रता होती है। "दुर्जन मिट्टी के घड़े के समान आसानी से टूट सकता है, लेकिन जुड़ नहीं सकता । सज्जन सोने के घड़े के समान है जो मुश्किल से