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मित्र-भेद
की अपनी देह देकर इन सबको छुड़ा लूं । कहा है कि
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"हे मूर्ख ! तू मृत्यु से क्यों डरता है ? डरे हुए को कहीं मृत्यु छोड़ती नहीं । आज अथवा सौ वर्ष के अन्त में प्राणियों की मृत्यु निश्चित है ।
उसी प्रकार
"गौ और ब्राह्मण के लिए जो मनुष्य अपना प्राण देता है, वह सूर्य-मंडल भेदकर परम गति को प्राप्त होता है ।"
इस प्रकार निश्चय करके उसने कहा, "अरे किरातो! अगर यही बात है, तो पहले मुझे मारकर मेरी तलाशी लो ।” बाद में डाकुओं ने ऐसा ही किया और उसे बिना धन का पाकर दूसरे चारों को भी छोड़ दिया । इसलिए मैं कहता हूं
"हे मूर्ख, हित करते हुए भी तूने अहित किया है । कहा है कि पंडित शत्रु अच्छा है, पर मूर्ख हितैषी अच्छा नहीं । बन्दर ने राजा का नाश किया पर चोर ने ब्राह्मण की रक्षा की ।"
इस तरह जब वे बातचीत कर रहे थे उसी बीच में संजीवक पिंगलक के साथ एक क्षण युद्ध करके उसके तेज नाखूनों की मार से घायल होकर मरकर जमीन पर गिर पड़ा। उसे मरा हुआ देखकर उसके गुणों के स्मरण से द्रवित पिंगलक बोला, "अरे ! संजीवक को मारकर मैंने बड़ा पाप किया है, क्योंकि विश्वासघात से बढ़कर कोई पाप नहीं । कहा है
"मित्र - द्रोही, कृतघ्न और विश्वासघाती मनुष्य जब तक सूर्य और चन्द्रमा रहेंगे तब तक के लिए नरक में पड़ते हैं ।
"भूमि के क्षय होने पर अथवा बुद्धिमान सेवक के नाश होने पर राज्य का नाश होता है । पर इन दोनों में ठीक समता नहीं, क्योंकि नष्ट हुई जमीन फिर वापस मिल जाती है, पर सेवक नहीं ।
मैं सभा के बीच में हमेशा संजीवक की प्रशंसा करता रहा। अब में सभासदों के सामने क्या कहूंगा ? कहा है कि