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मित्र-भेद
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"भद्र ! क्यों तू मुझे इतना डराता है । बता तो सही कि क्या बात है ? " चतुरक ने कहा, “स्वामी, धर्मराज आप पर कुपित हैं और 'इस सिंह ने मेरे एक ऊंट को अकाल में मार डाला है, इसलिए मैं उसके पास से सौगुने ऊंट लूंगा, इस प्रकार निश्चय करके ऊंटों का एक बड़ा झुंड लेकर सबसे आगे चलते हुए ऊंट के गले में घंटा बांधकर तथा मरे हुए ऊंट के प्यारे संबंधियों, उसके पिता, दादा इत्यादि को साथ लेकर वह बैर का बदला लेने के लिए आये हैं ।” सिंह यह सुनकर चारों ओर देखकर मरे ऊंट को छोड़ कर अपनी जान बचाने के लिए भाग गया। बाद में चतुरक ने उस ऊंट के मांस को धीरे-धीरे खाया |
इसलिए मैं कहता हूं कि 'दुश्मन को पीड़ित करते हुए और अपनी स्वार्थ-सिद्धि करते हुए पंडित पुरुष बन में रहते हुए चतुरक की तरह लक्ष्य न करे तो उसे बेवकूफ मानना चाहिए ।'
"
दमनक के चले जाने के बाद संजीवक विचार करने लगा "अरे घास खाने वाला होकर मैं इस मांसखोर पिंगलक का नौकर बना । यह मैंने क्या किया ? अथवा ठीक ही कहा है कि
" जो न जाने लायक आदमियों के पास जाता है और न सेवा करने योग्य की सेवा करता है वह खच्चरी जैसे गर्भ धारण करने से मृत्यु पाती है, उसी तरह मृत्यु पाता है ।
तब मैं क्या करूं ? कहां जाऊं ? मुझे शांति कैसे मिलेगी ? अथवा पिंगलक के पास ही जाऊं, शायद मुझे शरणागत जानकर वह मेरी रक्षा करे और मारे नहीं । कहा भी है-
" इस संसार में धर्म के लिए प्रयत्न करने वालों पर यदि विपत्ति आ पड़े तो बुद्धिमान पुरुष को उसकी शांति के लिए विशेष उपाय करना चाहिए, क्योंकि सारी दुनिया में यह कहावत प्रसिद्ध है— 'आग से जले हुओं को उसी से निकली गरम सेंक फायदेमन्द होती है ।'
और भी