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२२. निक्षेप
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२. निक्षेप सामान्य
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सविपक्ष तो नय होता है और मात्र गुण का आक्षेप निक्षेप कहलाता है । तात्पर्य यह कि जहां कोई पदार्थ सामने हो और उस मे गुण पर्याये आदि देख कर उनकी अपेक्षा रखते हुए उसका प्रतिपादन किया जा रहा हो वहा तो नय का व्यापार समझना; परन्तु जहा कोई पदार्थ ही सामने न हो और केवल कल्पनाओ द्वारा, वस्तुभूत गुणो की अपेक्षा न करके उस का प्रतिपादन किया जा रहा हो वहा निक्षेप का व्यापार समझना, जैसे कल्पना मात्र से ही किसी को इन्द्र कह देना, भले ही वह भूखा मरता हो । कहा भी है
प ध।५।७४० “सत्यं गुणसापेक्षो सविपक्ष सच नयं स्वयं क्षिपति । य इह गुणाक्षेप: स्पादुचरित केवलं स निक्षेप । ७४० ।
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अर्थ - गुणो की अपेक्षा से उत्पन्न होने वाला तथा विपक्ष की अपेक्षा रखने वाला तो नय है । और जो यहां उपचार से 'इस प्रकार का यह है' ऐसा केवल गुणों का आक्षेप करने वाला है, वह निक्षेप है, जिसकी व्युत्पत्ति स्वय क्षिपति होती है ।
२ निक्षेप सामान्य इस प्रकार नय व निक्षेप मे क्या अन्तर है यह दर्शाकर अब निक्षेप का सामान्य लक्षण कहते हैं । नि उपसर्ग पूर्वक क्षिप धातु से निक्षेप शब्द बनता है । इसका व्युत्पत्ति अर्थ होता है 'निश्चय में क्षेपण करना या डालना' । अर्थात किसी वस्तु को निश्चय में या निर्णयात्मक ज्ञान में स्थापित करना या क्षपण करना ही निक्षेप कहलाता है । या यो कह लीजिये कि किसी भी वस्तु का निश्चय करने या कराने के लिये जो कुछ भी उपाय प्रयोग मे आते है वे ही निक्षेप शब्द के वाच्य है । अथवा वस्तु का जिस जिस प्रकार से लोक मे व्यवहार किया जाता है वह सब निक्षेप कहलाता है ।
वह व्यवहार तीन प्रकार से करने में आता है--वस्तु के वाचक शब्द के रूप में, ज्ञान मे उस वस्तुकी की गई कल्पना के रूप मे