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२० विशुद्ध अध्यात्म नय
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६. असद्भुत व्यवहार
नय का मामान्य
अर्थ --- अन्य द्रव्य के गुण वल पूर्वक अर्थात उपचार सामर्थ्य
स उससे भिन्न द्रव्य के कहन मे आते है अर्थात अन्य द्रव्य मे आरोपित करने मे आते है वही सद्भुत व्यवहार नय का लक्षण है । ५२९ । उदाहरणार्थ वर्णादिमान होने के कारण अर्थात पुद्गल द्रव्य से निर्मित होने के कारण अप्ट कर्म तो ठीक ही मूर्त है । परन्तु जीव मे उत्पन्न होने वाले क्रोधादि भाव यद्यपि मूर्त नही है भिर भी उन मूर्त कर्मो के सयोग सम्बन्ध की विशेषता से उन्हे मूर्त कहने मे आता है । ५३० ।
विभाव भाव कभी भी विना पर सयोग के उत्पन्न नही होते । वह वस्तु के स्वभाव के अनुरूप नही होते । इसलिये उन्हें वस्तुभूत नही माना जा सकता । जिस प्रकार चान्दी से मिश्रित स्वर्ण सफेद दिखाई देता है तब वह सफैदी सोने की ही कहने में आती है । पर यह व्यवहार वस्तु भूत सत्य नहीं है, असद्भ त है, क्योकि स्वर्ण अव भी सफेद नही है पीला ही है। इसी प्रकार क्रोधादि भाव ज्ञान जाति के दिखाई न देने के कारण पुदगल के कहने आते है, पुदगल कर्मो को इनका कर्ता भी कहा जाता है। परन्तु वह व्यवहार वस्तुभूत सत्य नही है, असद्भ त है, क्योकि वे अब भी चेतन के है कर्मो के नही । जीव व इनमे क्षणिक तन्मयता होते हुए भी इनमे भेद ग्रहण किया जा रहा है इसलिये व्यवहार है। अत. इस नय का 'असद्ध त व्यवहार नय' यह नाम सार्थक है।
जीव व पुद्गल मे अन्तर्लीन वैभाविक शक्ति विशेष इस नय की उत्पत्ति का कारण है । क्योकि यदि यह न होती तो आकाश वत् यह द्रव्य भी त्रिकाल स्वभाव मे स्थित रहते । तब यह नय किसको-विपय करता । इस प्रकार के व्यवहार को असत्य व असद्भत स्वीकार करके जिस प्रकार कोई व्यक्ति उस स्वर्ण को शोध कर शुद्ध