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________________ १६. व्यवहार नय ६७० ८. शुद्ध सद्भूत व्यवहार नय अर्थ:--केवल ज्ञान व केवल दर्शन के प्रति शुद्ध-सद्भूत-शब्द से वाच्च अनुपचरित-सद्भूत व्यवहार है । (यहा जीव सामान्य का लक्षण करने के लिये उसमे शुध्द गुण का उसके साथ भेद कथन किया है ।) २ आ. पा.।१०। पृ. ८१ 'शुद्धसद्भूतव्यवहारो यथा शुद्ध गण शुद्धगुणिनो शद्ध पर्यायशुद्धपर्यायिणोर्भेदकथनम् ।" (अर्थ-शुद्धसद्भूत व्यवहार को ऐसा जानो जैसे कि शुद्ध गुण व शुद्ध गुणी मे या शुद्ध पर्याय व शुद्ध पर्यायी मे भेद कथन करना है । शुद्धगुण व शुद्धगुणी का भेद तो" ज्ञान जीव का गुण है ।" ऐसा सामान्य द्रव्य का स्वभाव दर्शाता है। और शुद्धपर्याय व शुद्ध पर्यायी का भेद "केवल ज्ञान जोव का गुण है ।" ऐसा विशेष द्रव्य या सिद्ध पर्याय गत जीव का स्वभाव दर्शाता है ।) ३. प्रा. प. । ११ पृ. १३१ “निरूपाधिगुणगुणीनी र्भेदविषयोऽनुपः चरितसद्भूतव्ययहारो यथा जीवस्य केवलज्ञानादयो गुण.।" (अर्थ-निरूपाधि गुण व गुणी मे भेद विषयक अनुपचरित सद्भूत व्यवहार है, जैसे जीव के केवल ज्ञानादि गुण कहना । यह कथन क्षायिक भाव रूप शुद्ध पर्याय को अपेक्षा जानना।) ४. नय. चक्र गद्य । २१ "संज्ञालक्षण प्रयोजनादिभिर्भित्वा शुद्धद्रव्ये
SR No.009942
Book TitleNay Darpan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherPremkumari Smarak Jain Granthmala
Publication Year1972
Total Pages806
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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