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१६. व्यवहार नय
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८. शुद्ध सद्भूत
व्यवहार नय
अर्थ:--केवल ज्ञान व केवल दर्शन के प्रति शुद्ध-सद्भूत-शब्द
से वाच्च अनुपचरित-सद्भूत व्यवहार है ।
(यहा जीव सामान्य का लक्षण करने के लिये उसमे शुध्द गुण का उसके साथ भेद कथन किया है ।)
२ आ. पा.।१०। पृ. ८१ 'शुद्धसद्भूतव्यवहारो यथा शुद्ध गण
शुद्धगुणिनो शद्ध पर्यायशुद्धपर्यायिणोर्भेदकथनम् ।"
(अर्थ-शुद्धसद्भूत व्यवहार को ऐसा जानो जैसे कि शुद्ध गुण
व शुद्ध गुणी मे या शुद्ध पर्याय व शुद्ध पर्यायी मे भेद कथन करना है । शुद्धगुण व शुद्धगुणी का भेद तो" ज्ञान जीव का गुण है ।" ऐसा सामान्य द्रव्य का स्वभाव दर्शाता है।
और शुद्धपर्याय व शुद्ध पर्यायी का भेद "केवल ज्ञान जोव का गुण है ।" ऐसा विशेष द्रव्य या सिद्ध पर्याय गत जीव का स्वभाव दर्शाता है ।)
३. प्रा. प. । ११ पृ. १३१ “निरूपाधिगुणगुणीनी र्भेदविषयोऽनुपः
चरितसद्भूतव्ययहारो यथा जीवस्य केवलज्ञानादयो गुण.।"
(अर्थ-निरूपाधि गुण व गुणी मे भेद विषयक अनुपचरित
सद्भूत व्यवहार है, जैसे जीव के केवल ज्ञानादि गुण कहना । यह कथन क्षायिक भाव रूप शुद्ध पर्याय को अपेक्षा जानना।)
४. नय. चक्र गद्य । २१ "संज्ञालक्षण प्रयोजनादिभिर्भित्वा शुद्धद्रव्ये