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१८. निश्चय नम
अत.
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चारित्र भी दो प्रकार का है - अन्तरंग चारित्र व बाह्य चारित्र । अन्तरंग चारित्र का विषय तो वह विचारणाये है जो कि ज्ञान मे पडे किन्ही निर्णयों के आधार पर नित्य उठा करती हैं । विचारणा व ज्ञान में इतना ही अन्तर है कि विचारणा उपयोग स्वरूप है और ज्ञान लब्ध स्वरूप अर्थात ज्ञान तो वह सामान्य जानकारी है जो अन्तरग मे पड़ी रहा करती है और विचारणा वह विकल्प है जो कि उस जानकारी के किसी अंग विशेष के आधार पर उठ उठ कर दबा करती है । जैसे इस समय आप को ज्ञान तो बहुत बातो का है, अपने धन व व्यापार का भी है और इस नगर का भी, विश्व मे प्रगति शील विज्ञान का भी और चन्द्र सूर्य का भी प्रयोजन भूत का भी है और अप्रयोजन भूत का भी परन्तु विचारणा तो केवल नय ज्ञान प्राप्त करने की है । यहां से उठकर जाओगे तब व्यापार सम्बन्धी या भोजन करने सम्बन्धी हो जायेगी । विचारणा बदल जायेगी पर क्या ज्ञान भी बदल जायेगा ? या यों कह लीजिये कि ज्ञान की ही प्रगट अनुभवनीय पर्यायों का नाम विचारणा है । वही अन्तरग चारित्र का विषय है । ज्ञान बाधक नही पर विचारणा बाधक है, जिस प्रकार कि युद्ध का अन्दर मे पड़ा ज्ञान बाधक नही परन्तु " यदि युद्ध हो गया तो क्या होगा, सब विनश जायेगा, कैसे रक्षा करुगा - इत्यादि" इस प्रकार की युद्ध सम्बन्धी वर्तमान विचारणा ही चित्त को अशान्त कर देती है । विचारणा को बाधक बताया जा रहा है । शान्ति की प्राप्ति के लिये यह विवेक उत्पन्न करना चाहिये कि कौनसी विचारणाओ से शान्ति मिलती है और कौनसी से अशान्ति, सो तो अन्तरंग चारित्र का ज्ञान है । और अशान्ति वाली विचारणाओ का परिहार करके
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शान्ति सम्वन्धी विचारणाये करना उस अन्तरग चारित्र का पालन है । उस अशान्ति सम्बन्धी विचारणाओ मे निमित्त रुप बाह्य पदार्थों का त्याग व शान्ति सम्बन्धी विचारणाओ मे निमित्त रूप बाह्य पदार्थों का ग्रहण सो बाह्यचारित्र है ।
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१. अध्यात्म पद्धति परिचय