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भूमिका समस्त भेदभाव से रहित तथा पक्षपात से शून्य, साम्यदृष्टि वीतराग गुरुओ का उपदेश यद्यपि सर्व जन-कल्याण के अर्थ होता है, परन्तु अरे रे ! दुष्ट पक्षपात व साम्प्रदायिकता ! तेरे गाढ आवरण को छेद कर वह कैसे पार हो । मोह कहो या कहो मिथ्यात्व, एकान्त कहो या कहो अज्ञान, भ्रम कहो या कहो पक्षपात, ये सब साम्प्रदायिकता के एकार्थवाची नाम है । इसके गहन पटल द्वारा आच्छादित व्यक्ति का त्रिलोकदशी अन्तर्रर्य कैसे प्रकाशित हो ? इसकी बू से वासित व्यक्ति के नथनो में अध्यात्म सुगन्धिका प्रवेश कैसे हो? इसके रंगीन चश्मे को चढा कर तत्व का वास्तविक उज्ज्वलरूप कैसे प्रतीति गोचर हो । इस पर भी ख्याति लाभ का प्रवल आकर्षण, लोक-प्रशंसा का मीठा विष, तनिक मात्र क्षयोपशम हो जाने पर विद्वत्ता का अहंकार, तथा भाषण कला का झूठा गर्व । एक करेला दूसरे नीम चढ़ा। एक तरफ वीतरागियो कि धीमी धीमी मधुर पुकार और दूसरी ओर साम्प्रदायिकता व लोकेपणा की भयकर गर्जनाये, कैसे सुनाई दे ?
वीतराग व साम्य दृष्टि हुए बिना विश्व का सुन्दर व्यापक रूप कोई कैसे देख सकता है, जिसको देख कर व्यक्ति कृतकृत्य हो जाता है। उपरोक्त झूठे गर्व के कारण व्यक्ति समझ बैठता है कि मै जो जानता हूँ वस वही ठीक, इसके अतिरिक्त दूसरे सभी की बात निःस्सार है। और केवल उसकी बाह्य प्रभावना को देखकर जगत भी खिच जाता है उसकी तरफ़ । वह समझ बैठता है-ओह ! मै बहुत बड़ा हो गया । मेरे उपदेश मे १०,००० श्रोता आते है । कुए का मेढक बेचारा इससे अधिक सोच भी क्या सकता है, मानो १०,००० या ५०,००० व्यक्तियो मे ही समस्त विश्व सीमित है । जगत बेचारा क्या जाने तत्व को, केवल प्रभावनावश उसकी आवाज मे ही अपनी आवाज मिलाकर बोलने लगता है, कि वास्तव मे यही सत्य है, मानो उसको ईश्वरीय अधिकार प्राप्त हुआ हो सच्चे व झूठे का सर्टीफिकेट देने का।