SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 582
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १७ पर्यायार्थिक नय ५५६ २ पर्यायार्थिक का कारण व प्रयोजन अब प्रयोजन सुनिये। अभेद वस्तु भले ही जानी जा सके पर न तो कह कर श्रोता को समझाई जा सकती है और नही स्वय उस पर विशेष विचार किया जा सकता है, न ही तर्क आदि द्वारा उसकी सिद्धि की जा सकती है । अभेद को दर्शाने का या विशेप्य को दर्शाने का एक मात्र साधन विश पगो की व्याख्या करना है, जैसा कि अमेरिका के फल को दर्शाने का एक मात्र साधन उसके रूप रस गन्ध आदिक को समझाना ही है। विशेषण कहो या पर्याय एक ही वात है । अत पर्यायो को पृथक पृथक रूप से वस्तु का प्रतिनिधि बना कर श्रोता के लिये तथा वस्तु की विशेपताये जानने के लिये अत्यन्त उपकारी है। इस प्रकार के उपकार की सिद्धि न हुई होती तो अखण्ड वस्तु को खण्डित करने की मुर्खता कौन करता किसी भी बात को समझने व समझाने का सकल लौकिक व्यवहार इसी नय के आश्रय पर चल रहा है, यह न हो तो समझने व समझाने का व्यवहार ही समाप्त हो जाये, गुरु शिष्य सम्बन्ध भी रहने न पाये, मोक्ष व मोक्ष मार्ग का भी लोप हो जाये, बड़ा अनर्थ हो जाये, तीर्थ की प्रवृत्ति रूक जाये, और न जाने क्या क्या हो जाये । अत इस का उपकार स्वीकार करने योग्य है, विशेषत वर्तमान की इस निकृष्ट अवस्था मे जव कि जीवन मे कल्याण की प्राप्ति करना अभीष्ट है। एक अदृष्ट पदार्थ सम्वन्धी परिचय प्राप्त करना है जो विना पर्यायार्थिक की सहायता के होना असम्भव है, यही इस नय का प्रयोजन है। अर्थात वस्तु की विशेषताओ या अगो का पृथक पृथक परिचय दिलाना इस का प्रयोजन है । इस प्रकार पर्यायार्थिक समान्य का कथन समाप्त हुआ, अव इसी की विशेषता दर्शाने के लिये इसके कुछ भेद प्रभेदो का कथन किया जायेया । यह बात अवश्य ध्यान में रखनी चाहिये कि ये सर्व ही भेद काल मुखेन कहे जायेगे । द्रव्य क्षेत्र व भाव पर भी यथा योग्य रीतय स्वय लागू कर लेना ।
SR No.009942
Book TitleNay Darpan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherPremkumari Smarak Jain Granthmala
Publication Year1972
Total Pages806
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy