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________________ ८. समभिरूढ नय का लक्षण ही इन्द्र, शक्र और पुरन्दर इन शब्दो को सर्वथा भिन्न मानना । १५ " शब्दादि तीन नय ४१६ भिन्नार्थता का यहां इतना ही समझना चाहिये कि एक ही व्यक्ति म उन उन शब्द की वाच्यभूत अनेक योग्यताये है, जिन का दर्शन उसी व्यक्ति या पदार्थ मे भिन्न भिन्न समयो पर होना सम्भव है । और इसीलिये स्थूल दृष्टि से देखने पर हम उस एक पदार्थ को उन पर्याय वाची शब्दो मे से किसी एक शब्द का वाच्य बना सकते है । यद्यपि शब्द नय और समाभिरूढ नय दोनों ही उन पर्याय वाची शब्दो का प्रयोग एक पदार्थ के लिये कर देते है परन्तु दोनो के प्रयोग मे कुछ अन्तर है । पहिला तो व्युत्पत्ति अर्थ की अपेक्षा न करके उन्हे परमार्थ रूप से एकार्थक स्वीकार करता है और दूसरा उनकी भिन्नार्थता को देखता हुआ उस उस योग्यता के कारण उपचार मात्र से या ' रूढिवश उन्हे एक पदार्थ वाची मानता है । जैसे भले ही ऐश्वर्य का उपयोग करते समय भी समभिरूढ नय, इन्द्र को रूढिवश पुरन्दर कहना स्वीकार करले परन्तु इतने मात्र से वह यह नहीं भूल जाता कि यह प्रयोग उपचार मात्र है, वास्तव मे इन्द्र और पुरन्दर शब्द के अर्थ भिन्न भिन्न है । हाथी घोडा आदि सर्वथा भिन्नार्थ वाची शब्दों में तो इस प्रकार का उपचार भी सम्भव नही है । यह तो अनेक शब्दो की एकार्थता सम्बन्धी बात हुई अब एक शब्द की अनेकार्थता सम्बन्धी बात सुनिये । व्यज्जन नयों का प्रकरण प्रारंभ करते समय प्रकरण नं. ४ मे यह बताया गया था कि वचन दो प्रकार के होते है-भेद रूप और अभेद रूप । एक पदार्थ के वाचक अनेक पर्याय वाची शब्द भेद रूप है । तथा अनेक पदार्थो का एक वाचक शब्द अभेद रूप है । जैसे एक 'गो' शब्द के 'गाय' 'वाणी' 'पृथिवी' आदी ग्यारह अर्थ शब्दकोष मे प्रसिद्ध है । इन सभी अर्थो मे यदि एक शब्द का प्रयोग
SR No.009942
Book TitleNay Darpan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherPremkumari Smarak Jain Granthmala
Publication Year1972
Total Pages806
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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