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१५. शन्दादि तीन नय
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५. व्यभिचार का अर्थ
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५. पुरुष व्यभिचारः--
१. ध०।पु०पृ० ८८ २३ 'उत्तम पुरुष के स्थान पर मध्यम पुरुष
और मध्यम पुरुष के स्थान पर उत्तम पुरुष आदि के कथन करने को पुरुष व्यभिचार कहते है। जैसे:
(i) एहि मन्ये रथेन यास्यसि नहीं यास्यसि यातस्ते पिता'
अर्थात आओ ! तुम समझते हों कि मै रथ से जाऊँगा, परंतु तुम क्या जाओगे, तुम्हरा बाप भी कभी रथ मे बैठकर गया है ?" यहां पर 'मन्यसे' के स्थान पर 'मन्ये' यह उत्तम पुरुष का और 'यास्यामि' के स्थान पर 'यास्यसि' यह मध्यम पुरुष का प्रयोग हुआ है। इसलिये पुरुष व्यभिचार है।
(रा वा. ।१।३३।६।६८।२०), (स. सि. ।।३३।५१८), (क. पा.पु.१।पृ २३७), घ० पु.६ पृ १७८)
६. उपग्रह व्यभिचार
१. ध० [पु० १।पृ० ८६।१० "उपसर्ग के निमित्त से परस्मैपद
के स्थान पर आत्मनेपद और आत्मनेपद के स्थान पर परस्मैपद के कथन कर देने को उपग्रह व्यभिचार कहते है। जैसे -
(i) 'रमते' के स्थान पर 'विरमति', 'तिष्ठति' के स्थान पर
'सतिष्ठते' और 'विशति' के स्थान पर 'निविशते' का प्रयोग किया जाता है।"
(रा. वा. ।१।३३।६।६८।२२), (स. सि. १।३३।५२६), (क. पा. पु. १.पृ. २३७), ध० ।।पृ. १७८)