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१५. शब्दादि तीन नय
५. व्यभिचार का अर्थ
ही दिया गया है ताकि नयों को समझने के लिये कोई भूमिका तय्यार हो जाये । अगले उद्धरण इन छहो व्यभिचार दोषो का उदाहरणो द्वारा स्पष्ट प्रतिपादन करते है ।
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व्याकरण से अनभिज्ञ व्यक्तियों की घरेलू भाषा मे इस प्रकार के व्यभिचार दोष यत्र तत्र देखने को मिलते है | व्याकरण उनका निषेध करके नियम पूर्वक ही शब्दो का प्रयोग करने की रीति दर्शाता है । अर्थात वाक्य बोलते समय इतना विवेक रखना चाहिये कि वक्ता की भाषा में उपरोक्त व्यभिचार लगने न पाये, अन्यथा वह भाषा शुद्ध नही कहलायेगी । समान लिंग, समान संख्या, उपयुक्त कारक, आदि वाले शब्दो का प्रयोग करना ही न्याय संगत है ।
इतना होने पर भी सस्कृत व्याकरण मे अनेकों अपवादो को ' न्याय संगत स्वीकार कर लिया है, जैसा कि निम्न उद्धरणो पर से विदित होता है ।
१ लिंगव्यभिचार
१. ध० । पु
१ । पु० ८७ । “स्त्रीलिंग के स्थान पर पुलिंग का कथन करना और पुलिंग के स्थान पर स्त्रीलिंग का कथन करना आदि लिग व्यभिचार है । जैसे -
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(i) 'तारका स्वाति . ' अर्थात स्वाति नक्षत्र तरका है । यहा पर तारका शब्द स्त्रीलिंगी और स्वाति शब्द पुल्लिंगी है । इसलिये स्त्रीलिंगी के स्थान पर पुलिगी कहने से लिंगव्यभिचार है ।
(ii) 'अवगमो विद्या' अर्थात ज्ञान विद्या है । यहा पर अवगम् शब्द पुल्लिगी और विद्या शब्द स्त्रीलिंगी है । इसलिये पुलिंगी के स्थान पर स्त्रीलिंगी कहने से लिगव्याभिचार