________________
१५ शब्दादि तीन नय
३६३
५. व्यभिचार का अर्थ
व्यभिचार शब्द का अर्थ है । यह व्यभिचार दोष छः प्रकार का मानने में आया है-लिंग, व्यभिचार, सख्या व्यभिचार, काल व्यभिचार, कारक व्यभिचार, पुरुप व्यभिचार और उपग्रह व्यभिचार ।
स्त्री पुरुप व नपुसक के भेद से लिग तीन प्रकार है। एक वचन, द्वि-वचन और वहुवचन के भेद से संख्या तीन प्रकार है । भूत वर्तमान व भविष्यत के भेद से काल तीन प्रकार है । कर्ता, कर्म, करण, सम्प्रदान, अपादान व अधिकरण के भेद से कारण छ. प्रकार है । प्रथम, मध्यम व उत्तम के भेद से पुरुष तीन प्रकार है। किसी मूल शब्द के पहिले 'अप' 'प्र' 'वि' आदि जोड़ देने को उपग्रह कहते है।
१. विद्या, वनिता आदि शब्द स्त्री लिग है, सूर्य, हाथी आदि शब्द पुल्लिंगी है; पुस्तक, धन आदि शल्द नपुसक लिगी है। यद्यपि हिन्दी व्याकरण में स्त्री व पुरुष दो ही लिंग स्वीकार किये गये है परन्तु सस्कृत व्याकरण मे उपरोक्त तीनों लिग स्वीकारे गये है। हिन्दी मे नपुसक लिगी शब्द का प्रयोग भी पुल्लिगी व स्त्री लिंगी वत् ही कर दिया जाता है। 'राजा की वनिता' तथा 'राजा का हाथी' इन प्रयोगों से वनिता व हाथी शब्दों का लिंग स्पष्ट जानने में आता है। 'की' शब्द के साथ वनिता शब्द का प्रयोग और 'का' शब्द के साथ हाथी शब्द का प्रयोग स्पष्ट बता रहा है कि वनिता स्त्री लिंगी शब्द है और हाथी पुल्लिगी। "राजा की पुस्तक' तथा 'राजा का धन' इन प्रयोगों मे नपुसक लिंगी पुस्तक शब्द का प्रयोग स्त्री लिगी वत् और धन शब्द का प्रयोग पुल्लिंगी वत् कर दिया गया है। संस्कृत व्याकरण मे तीनों जाति के शब्दों के लिये विभक्तियों का पृथक पृथक रूपों का प्रयोग होता है। इस कथन पर से शब्द के लिंग का परिचय दिया गया।