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१४ ऋजु सूत्र नय
..२.. ऋजु सूत्र नय
सामान्य के लक्षण प्रत्यय (प्रत्यक्ष) होता है वह ऋजुसूत्र नय की दृष्टि मे भ्रान्त है।
२ स म ।२८।३१३।४ 'यदि एक स्वभावः कथमनेकः
अनेकश्चेत्कथमेकः एकानेकयो परस्परपरिहारेणावस्थानात् । तस्मात् स्वरूपनिमग्ना परमाणव एव परस्परोपसर्पणद्वारेण कथचिनिचयरूपतामापन्ना निखिलकार्येषु व्यापारभाज इति त एव स्वलक्षण न स्थूलता धारयत् पारमार्थिकमिति । एवमस्याभिप्रायेण यदेव स्वकीय तदेव वस्तु न परकीयम्, अनुपयोगित्वात् ।”
अर्थ-एक और अनेक मे परस्पर विरोध होने से एक स्वभाव
वाली वस्तु मे अनेक स्वभाव और अनेक स्वभाववाली वस्तु मे एक स्वभाव नही बन सकते । अतएव अपने स्वरूप मे स्थित परमाणु ही परस्पर के सयोग से कथाञ्चित समूह रूप होकर सम्पूर्ण कार्यों में प्रवृत्त होते है । (अर्थात स्कन्धों मे भी प्रत्येक परमाणु स्वतत्र रहता हुआ ही निज कार्य मे प्रवृत्ति होता है ।) इसलिय ऋजुसूत्र नय की अपेक्षा स्थूल रूप को धारण न करने वाले स्वरूप मे स्थित परमाणु ही यथार्थ मे सत् कहे जा सकते है। अतएव ऋजुसूत्र की अपेक्षा निजस्वरूप ही वस्तु है । परस्वरूप को अनुपयोगी होने के कारण वस्तु नही कह सकते।
४ लक्षण नं ४ (कर्ता कर्म आदि द्वैत निरास) -
१ रा वा.।१।३३।७।६७।१२ “कुम्भकाराभाव. शिवकादिपर्याय
करेण तदभिधानाभावात् । कुम्भपर्यायसमये च स्वावयवेभ्य एव निर्वृत्ते. ।”