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१३ सग्रह व व्यवहार नय ३३३
६. सग्रह व व्यवहार
- नय समन्वय व्यापक कहने मे क्षेत्र, नित्य कहने मे काल और स्व- लक्षणभूत कहने मे भाव का ग्रहण निर्विवाद
सिद्ध है। यह भी तो द्वैत का ही ग्रहण है।
दूसरी बात यह भी है कि यह जो इतना बडा पसारा दिखाई दे रहा है, भेद के सर्वथा अभाव मे उसे क्या समझेगा ? भले ही भ्रम मात्र कहकर अपना पिण्ड छुड़ाले पर यह पसारा तो सत्य ही रहेगा। भ्रम कहना तो जान बूझकर आंखों पर पट्टी बान्धना है । हा इस सब विचित्रता को किसी अपेक्षा विशेष से यदि भ्रम कहे तो तेरी बात अवश्य स्वीकारनीय हो सकती है, क्योकि ये सब जड़ व चेतन या प्रकृति व पुरुष के सम्मेल प्राप्त होने वाले क्षणिक बाह्य रूप मात्र है, स्वय कोई नित्य स्वतंत्र सत्ताक नही है ।
यह सर्व क्षणिक है । क्षणिक को या विनशने वाले रूप मात्र को सत् मान बैटना भ्रम ही तो है । परन्तु इस प्रकार इन रूपो को भ्रमात्मक तभी तो सिद्ध किया जा सकता है जब कि इनकी किसी अपेक्षा तो सत्ता स्वीकारी जाये। भले इन्हे क्षणिक सत्ता के रूप मे पहिचाने पर यह क्षण भर के लिये है तो अवश्य । सर्वथा न हो, सर्वथा भ्रम हो ऐसा तो नहीं है । जो दीखता है वह सर्वथा भ्रम नही हो सकता, हा उसके सम्बन्ध मे हमारी यह कल्पना, कि 'यह कोई सत्ताभूत टिकने वाला पदार्थ है', अवश्य असत्य व भ्रम है ।
___ अनुभव सदा पर्याय या बाह्य मे दीखने वाले इन रूपो का ही हो सकना सम्भव है । उस पदार्थ का तो अनुभव या साक्षात तीन काल में कभी भी होना सम्भव है नहीं, जिसके कि यह सब रूप है । जैसे कि पहिले बताया जा चुका है अनुभव सदा पर्याय का होता है द्रव्य व गुण का नही । जैसे कि यदि यह कहे कि जीव द्रव्य को देखो पर न तो संसारी को देखना और न मुक्त को, या पशु को देखो पर गाय घोडा आदि न कोई भी रूप न देखना, या स्वाद को चखो पर