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१. पक्षपात व एकान्त - १४ ७. कोई भी मत सर्वथा झूठा नही अटका जाय तो गधे का सीग न तीन काल मे कभी हुआ है और न कभी हो सकेगा। विरोध को दृष्टि मे रखकर सहज प्रयोजन कभी पढ़ा नही जा सकता, जैसा कि दृष्टान्त पर से जाना जा सकता है । सरलता पूर्वक यथायोग्य सभावना का विचार करने पर ही वह पढा जाना सभव है । लौकिक मार्ग में प्रयुक्त वाक्यों पर से तो वह हम ठीक ठीक अभिप्राय को ही पकड़ते है, अपनी ओर से उसमे खेचा तानी करने का प्रयोग नहीं करते । 'मेरा पैन' कहने पर ठीक ठीक ही अभिप्राय समझ जाते है, पर यहा इस अलौकिक मार्ग में प्रयुक्त वाक्यो मे खेचातानी अवश्य होने लगती है। इसका कारण दृष्टि मे पड़े पक्षपात के अतिरिक्त अन्य कुछ नही ।
यदि पक्षपात न रहे तो ३६३ के ३६३ मतो मे किसी न किसी अपेक्षा सत्य दीखने लगे। उनके उपदेष्टा मूर्ख न थे । बुद्धिमान व तार्किक थे । कपोलकल्पित व सर्वथा अयुक्त बात को स्वीकार भी कौन करता है ? और बे सिर पैर की बात का विचार आता भी किसे है ? कुछ बात प्रतीति मे प्रत्यक्ष होने पर ही किसी को कुछ बताया जा सकना सभव है । बस तो अनेको विचारज्ञों ने अपनी विचारणाओ के आधार पर वस्तु मे सेकोई तथ्य निकाला और उस ही का उपदेश दिया। वह तथ्य वस्तु मे अवश्य है, तभी तो निकल पाया, नही तो निकलता कैसे ? इसलिये जो जो भी बात वे कह रहे है वे सब सत्य है । फिर भी उन्हे मिथ्या कहा गया ? उसका कारण केवल यही है कि उनका वह सत्य अधूरा है । अपने संत्य की स्थापना के साथ साथ वह अन्य के सत्य को स्वीकार नही करते, बल्कि उसका निषेध करते है। इस पर से उनका पक्षपात प्रदशित होता है। बस इस पक्षपात के कारण उन सब को मिथ्या कहा गया है।यदि उन सब का परस्पर सम्मेल-बैठाकर यथा योग्य रीति से उनको स्वीकार किया जावे तो वे सब सत्य है । जैसे कि ३६३मतों को मिथ्या बताकर स्वयं गोम्मटसार मे आचार्य देव कह रहे है।