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१. पक्षपात व एकान्त
१. पक्षपात व एकान्त ११६. आगम मे सब कुछ नही को न पा सके, परन्तु यह सभव है कि हमारी विचारणाओं मे कोई ऐसी नई बात आ जाये, जो कि उपलब्ध आगम मे लिखी न मिले। इसलिये प्रत्येक बात की जाच आगम से की जानी सभव नही । बुद्धि ही वास्तविक यंत्र है। पर वह बुद्धि वैज्ञानिक होनी चाहिये, अर्थात् उसे रूढि से पढने की बजाये वस्तु को पढ़ने का अभ्यास होना चाहिये ।
बात कुछ अरोचक सी लगेगी परन्तु किया क्या जाये सत्य बात पहले पहल कड़वी लगा ही करती है । धैर्य व शान्ति से विचार करे तो अरोचक न होगी बल्कि तेरी दृष्टि की सकीर्णता को धो डालेगी। यहा यह तर्क उत्पन्न हो रहा होगा कि दृष्टान्त रूप से बताया गया साहित्य तो अल्पज्ञो द्वारा रचा गया है, परन्तु यह आगम तो सर्वज्ञता की उपज है, इसलिये यह तो पूर्ण ही है । इसके अतिरिक्त नई बात आनी सभव नही, और यदि आती है तो वह झूठ है। परन्तु भाई ! ऐसा नही है । यदि साक्षात् गणधरदेव द्वारा लिखा गया होता, तो भी तेरी बात चलो किसी अंश मे स्वीकार कर ली जाती,परन्तु यह तो उनका लिखा हुआ भी नहीं है। यह तो पीछे से भाये हुए आचार्यों द्वारा लिखा गया है, जो भले ही विद्वान व बुद्धिमान रहे हो, पर सर्वत्र न थे । और इसलिये आगम में वही बातें आ सकी जोकि ने जानते थे। उनके अतिरिक्त और कहा से आती? वह भी सारी की सारी लिपिबद्ध हो गई हो, ऐसा भी नही है जैसा कि कहा है। ।
प्रज्ञापनीयभावानन्तभागस्तु, अनभिलाप्याना । प्रज्ञापनीयाना पुन अनन्तभागः श्रुतनिबद्धः ।
गोम्मटसार जीव० । ३३४
"अनुभव मे आये अवक्तव्य भावो का अनन्तवा भाग मात्र ही कथन किया जाने योग्य है और कथनीय भाव का भी अनन्तवा भाग श्रुतिनिबद्ध हो पाया है।" इसके ऊपर भी यदि इतिहास पर दृष्टि डालें