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________________ १२. नैगम नय २६० ६. द्रव्य पर्याय नैगम नय भाव के अतिरिक्त और कुछ हो ही नही सकता अत वही अर्थ यहा ग्रहण करना । किसी गुण विशेष के औदायिक भाव पर से द्रव्य सामान्य के अखण्ड औदायिक भाव का सकल्प या अनुमान करना ऐसा इसका अर्थ हुआ । तहा विशेष गुण का औदयिक भाव तो विशेषण होता है और द्रव्य का अखण्ड औदयिक भाव विशेष्य होता है । गुण का औदयिक भाव तो अर्थ पर्याय कहलाती है और द्रव्य का औदयिक भाव द्रव्य पर्याय कहलाती है । औदयिक भाव रूप अर्थ पर्याय अशुद्ध पर्यायार्थिक का विषय है और औदयिक भाव रूप द्रव्य पर्याय अशुद्ध द्रव्यार्थिक का विषय है । इसलिये ही इन दोनो को यहा 'अशुद्ध अर्थ पर्याय' और 'अशुद्ध द्रव्य' इन नामो के द्वारा कहा गया है । इस प्रकार अशुद्ध अर्थ पर्याय पर से अशुद्ध द्रव्य के सकल्प को इस नय का लक्षण बनाया गया है । जैसे 'इन्द्रिय सुख का प्रत्यक्ष करने वाला ही जीव है' ऐसा संकल्प करने मे वन्द्रिय सुख तो अर्थ पर्याय है और उसका भोग करने वाला ससारी जीव अशुद्ध द्रव्य है । इसलिये यहां अशुद्ध अर्थ पर्याय पर से अशुद्ध द्रव्य का संकल्प किया गया है । यद्यपि अर्थ पर्याय रूप इन्द्रिय सुख उस जीव द्रव्य से भिन्न अपनी सत्ता रखती नही, पर उसे पृथक स्वीकार करके लक्षण लक्ष्य भाव रूप द्वैत उत्पन्न किया गया है विषय है । इसी की पुष्टि व । ऐसे द्वैत का ग्रहण ही इस नय का अभ्यास निम्न उदाहरणो पर से होता है । १ श्लो वा . पु ४ । पृ ४३ " जीव मे विषय जनित सुख का सकल्प ( अशुद्ध द्रव्य अर्थ पर्याय नैगम है ) । " #; २. रा वा हि ।१।३३।१६६ "विषयी जीव है सो एक क्षण सुखी है (याकू यहू नैगम' नय सकल्प करें है ) । यहा विषयी जीव है सो अशुद्ध द्रव्य है सो विशेष्य है ( तातै मुख्य
SR No.009942
Book TitleNay Darpan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherPremkumari Smarak Jain Granthmala
Publication Year1972
Total Pages806
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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