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१. पक्षपात व एकान्त
४. कुछ और भी है
कि यह विष मेरे जीवन को किस बुरी तरह हनन कर रहा है । मै और आप दोनों ही समान रूप से मात्र अपनी-अपनी धारणाओं को, ही सच्ची समझकर दूसरे की धारणाओं पर आक्षेप करके उन्हे झूठी ठहराने का प्रयास कर रहे हैं। दोनों के ही प्रशंसकों की संख्या बराबर बढ़ती जा रही है । हम दोनों ही एक दिन उस अदृष्ट शक्ति द्वारा खेच लिए जाते है, जिसकी गोद में जाकर सब विश्राम पाते है । अर्थात् मृत्यु के अन्न बन जाते है । परन्तु हमारे उस पक्ष का प्रचार सदा के लिए उन अनुयाइयो के हाथ में वाद-विवाद व शास्त्रार्थ का एक शस्त्र बनकर रह जाता है, जिसके द्वारा परस्पर मे लड़ते रहने मे ही वे बेचारे धर्म की कल्पना करके, स्वयं अपने जीवन मे आग लगाते रहते है । ओह ! कितनी दयनीय है उनकी दशा । प्रभू के अतिरिक्त कौन उनकी रक्षा करने में समर्थ है ?
पक्षपात की उत्पत्ति का दूसरा कारण यह है कि अपनी बुद्धि से कदाचित कोई नई बात जान लेने पर अहंकार वश वही पहिली प्रक्रिया चल निकले, या मै तो स्वयं अहंकार के वश मे न पडूं पर मेरी उस बात को सुनकर मेरे अनुयाई अहंकार के शिकार हो जाये । मै अन्य बाते जानने की साधना करता रहूं पर इसी जीवनकाल मे उसे पूरी न कर सकू, और अधूरी साधना रहते-रहते ही मृत्यु के द्वारा पुकार लिया जाऊँ । तात्पर्य यह है कि पक्षपात का मूल कारण है अधूरी बात का जानना।
पक्षपात शोधन के दो ही उपाय हो सकते है । या तो पूरी की । ४. कुछ ओर पूरी बात जानली जाये, और या अधूरी बात के साथ
भी है साथ यह अवधारण कर लिया जाये की जो कुछ मै जान पाया हू, वह पूरी बात का अनन्तवा अश भी नही है । इसके अतिरिक्त भी बहुत कुछ जानने को अभी शेष है । सो पहिला उपाय तो वर्तमान मे लगे हाथों होना कुछ असम्भव सा प्रतीत होता है, भले ही आगे।