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________________ १२ नैगम नय २३८ १. नैगम नय सामान्य - ४. सग्रह व व्यवहार दोनो को विपय करने वाला नैगम नय है। ५ कर्ता कर्म आदि मे भेद करने वाला नैगम नय है । यह सब इस नैगम नय के लक्षण है । इसके अनेको भेद प्रभेद है, जो आगे बताये जायेगे। यहा तो नैगम सामान्य का प्रकरण है, अत इसके उपरोक्त लक्षणों की पुष्टि व अभ्यास के अर्थ कुछ आगम के उद्धरण देखिये: १. लक्षण नं १ (संकल्प मात्र ग्राही) १. रा. वा. ।१।३३।२।६५ "निगच्छन्ति तस्मिन्निति निगमनमात्र वा निगमः निगमे कुशलो भवो नैगमः ।" अर्थ - 'नि' उपसर्ग पूर्वक गम' धातु से 'अच' प्रत्यय करने पर निगमन शब्द बना है । और निगम शब्द से कुशल या भव अर्थ मे 'अण्' प्रत्यय करने पर नैगम शब्द की सिद्धि हुई है । (इसका अर्थ संकल्प करना है) २ आ प. १९।२३ "नैक गच्छतीति निगम निगमो विकल्प. स्तत्र भवो नैगम.।" अर्थ- जो प्रचुर रूपेण जाने सो निगम । निगम का अर्थ विकल्प है। उसमे होने वाला ज्ञान नैगम कहलाता है। २ स सि ।१।३३।५।५०७ “अनभिनिर्वृत्तार्थसंकल्पमात्रग्राही नैगमः। कश्चित्पुरुष परिगृ हीतपरशु गच्छन्तमवलोक्य कश्चित्पृच्छति किमर्थ , भवान्गच्छतीति । स आह प्रस्थमानेतुमिति । नासौ तदा प्रस्थपर्यायः सन्निहितः, तदर्थे -व्यापारे स
SR No.009942
Book TitleNay Darpan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherPremkumari Smarak Jain Granthmala
Publication Year1972
Total Pages806
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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