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नय सामान्य
१२ नैगम नय
२३६ आदि तथा एक, दो इन्द्रिय आदि तथा अन्य भी अनेको भेद है। पृथक पृथक वे सब भेद प्रभेद तो सग्रह व व्यहार के विषय है, पर नैगम नय अकेला ही इन सब को विपय करता है । तात्पर्य यह कि नैगम नय के दो भेद है--संग्रह व व्यवहार ।
५. लक्षण न. ५:—इन सब बातों के अतिरिक्त यह वस्तु में अन्य प्रकार भी द्वैत उत्पन्न कर देता है । शब्द, शील, कर्ता-कर्म, साधनसाध्य, कारण-कार्य, आधार-आधेय, भूत-वर्तमान-भविष्यत, मानउन्मान आदि का आश्रय करके यह वस्तु मे भेद डाल देता है। कभी गुण को साधन व द्रव्य को साध्य बनाकर प्रतिपादन करता है क्योकि गुणों पर से ही द्रव्य की सिद्धि होती है। कभी द्रव्य को कारण औरपर्याय को कार्य कहता हुआ प्रगट होता है । क्योकि द्रव्य मे ही पर्याय प्रगट होती है कभी पूर्व पर्याय को कारण व उत्तर पर्याय को कार्य बतलाने लगता है-क्योंकि पूर्वं पर्याय का व्यय हो जाने पर ही उत्तर पर्याय की उत्पत्ति होती है। द्रव्य को आधार तथा गुण व पर्याय को आधेय कहकर वस्तु मे द्वैत उत्पन्न करता है क्योंकि द्रव्य मे ही गुण पर्याय रहते है, पृथक नही, जैसे अग्नि मे ही ऊष्णता रहती है पृथक नहीं। इस प्रकार अभेद द्रव्य मे भी विश्लेषण द्वारा द्वैत का उपचार उत्पन्न करके उसे विशद बनाना इस नय का काम है ।
इतना ही नही, भिन्न द्रव्यो मे भी कारण-कार्य आदि भावो को स्वीकार करके वस्तु की कार्य व्यवस्था का अत्यन्त व्यापक रूप दृष्टि मे लाना भी इसका काम है। उपादन-उपादेय ओर निमित्त-नैमि त्तिक दोनों ही भाव इस के विषय है। वस्तु की सत्ता को तथा उसकी उत्पाद व्यय रूप कार्य व्यवस्था को सिद्ध करने के लिये जो कुछ भी जानने, देखने व कहने मे आता है वह सब इसका विषय है। यद्यपि आगम पद्धति मे वस्तु का निज वैभव अर्थात उसके स्व चतुष्टय ही दर्शाने में प्रमुखतः आते है, पर उसकी कार्य व्यवस्था मे