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पर यह विचार कर कि रागी जीव के लिये ऐसा किया जानाएक दम सम्भव नही । रागी को ही तो वीतराग होना है । वीतराग ही हो गया तो वीतरागता की प्राप्ति का प्रश्न ही क्या रहा ? अतः राग मे रहते रहते वीतरागता की प्राप्ति तो राग के आधार पर ही हो सकेगी । केवल उस राग की दिशा में परिवर्तन करना होगा । अतः अन्त के शेष ५ मिनिट में यह बताना भी मेरा कर्त्तव्य अवश्य है, क भाई ! राग अवस्था मे राग ही एक मात्र साधन है, अत: इसकी दिशा भोगों की ओर से हटाकर दीतराग देव शास्त्र गुरु की ओर कर भोगो के ग्रहण के राग की दिशा घुमाकर भोगों के त्याग की ओर कर । और इस प्रकार राग तो कर, पर राग के प्रतिका नही, वीतरागता के प्रति का कर । इस प्रकार राग भी कथांचित वीतरागता का साधन इस निचली भूमिका मे अवश्य है । आगे जाकर शुल्क ध्यान मे इसका आश्य पूर्णतः छूट जाने पर, लागू होगा । अत वीतरागता के प्रति का राग साधन है, और वीतरागता साध्य है । इस प्रकार चारित्र की व्याख्या के अर्न्तगत वीतरागता अग का पोषक कथन सापेक्ष हो गया ।
ऊपर वाला नियम
नय की स्थापना
४. वचन कैसा होना चाहिये
प्रभो ! यह मार्ग कल्याण का, है पक्षपात का नही । जिस वचन आप व परका दोनों का हित हो, वही बोलने योग्य है । तेरे पास बुद्धि है, अनुमान के आधार पर यह जाना जा सकता है, कि श्रोता मेरा वचन सुनकर अहित की और तो नही झुक जायेगा । यदि ऐसा होता दिखाई दे, तो तत्क्षण, अपनी मुख्य बात का विरोधी अंग पुष्ट कर देना योग्य है । देख 'राजा वसु का दृष्टात । यद्यपि उसके ज्ञान मे सत्य और असत्य का निर्णय मौजूद था । वह यह जानता था कि इस यज्ञ के प्रकरण मे 'अज' शब्द का अर्थ 'जो' होता है " बकरा नही" । फिर भी अपने किसी स्वार्थ या पक्ष विशेष वश उसने यह कह दिया कि 'अज' का अर्थ यहा 'बकरा' ही ग्रहण करना चाहिये । यद्यपि ज्ञान मे वह बराबर जान रहा था कि वह बात असत्य है, पर फिर