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६. नय की स्थापना
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३. अथं ज्ञान व लक्षण -
ऐसा भी कहने में आ सकता है। परन्तु तभी, जब कि श्रोता यह जानता हो कि यह कथन भूतकाल की पर्याय की अपेक्षा कहा जा रहा है । यदि श्रोता अनभिज्ञ है तो अपेक्षा स्पष्ट बतानी ही चाहिये, ताकि उसे भ्रम उत्पन्न न हो जाये । इस प्रकार को कथन पद्धति मे 'कथंचित' शब्द का प्रयोग होता है, जिसका अर्थ है, किसी अपेक्षा से।
ऊपर के वक्तव्य पर से नय के निम्न लक्षण निकलते है । वक्ता व श्रोता दोंनो का पृथक पृथक आश्रय लेकर इसके पृथक पृथक लक्षण निकालते है:
१ वक्ता के अभिप्राय को नय कहते है २. सम्यग्ज्ञान या प्रमाण ज्ञान के विकल्प को नय कहते हैं
३. जो श्रोता की वस्तु के प्रति ले जाये सो नय है । ऊपर के दो लक्षण वक्ता को दृष्टि मे रखकर दिये गये है, और इस पर से यह सिद्ध होता है कि वक्ता सम्यग्ज्ञानी ही होना चाहिये । क्योकि उसी के ज्ञान का विकल्प, नय है, सर्व साधारण ज्ञान का नही । नं. ३ वाला लक्षण श्रोता को दृष्टि में रखकर किया गया है जिस पर से यह सिद्ध हो सकता है कि नय वचन उसी के लिये कार्य कारी है, जो अपने पक्षपातों को दबाकर वस्तु को समझने का प्रयास करे ।
इस प्रकरण में थोड़ी और विशेषता भी यहां जान लेनी आवश्यक ३. अर्थ, ज्ञान है, क्योकि अब तक हमने नय की व्याख्या का आधार व वचन नय ज्ञान मे पड़े अखड चित्रण को ही बनाया है, परन्तु इतना ही मात्र नही है । वस्तु के अंग तीन स्थान पर पढे जा सकते है-१. वस्तु मे जाकर, २. वस्तु के अनुरूप प्रमाण ज्ञान मे जाकर, ३. प्रमाण ज्ञान मे से किसी अग को मुख्य रूपेण दृष्टि मे लेकर बोले