________________
६. नय की स्थापना
१७२
...२.. नय का. लक्षण
बस इसी का नाम नय है । इसमे कोई खोटा प्रयोजन नहीं रहता । या यह भी कह सकते हो कि मैंने यह बात इस दृष्टि से कही है, इस अपेक्षा से कही है, यह मुख्यता रखकर कही है, यह लक्ष्य रखकर कही है, या इस नय से कही है । इसलिये प्रयोजन, अभिप्राय लक्ष्य, दृष्टि, अपेक्षा, मुख्यता व नय-यह सारे शब्द एकार्थवाची है । निप्रयोजन नय के नाम का प्रयोग नय नही कहलाता । और इसी प्रकार कोई विशेष कारण रूप कार्यकारी पना देखे विना भी जिस किस नय का प्रयोग करना नय नही कहलाता । नय उसी का नाम है जो किसी प्रयोजन व कारण को दृष्टि मे रखकर प्रमुखतः दर्शाने मे आये। इसलिये नय सर्व साधारण व्यक्तियो को होनी असम्भव है । इसका यथार्थ प्रयोग तो प्रमाण ज्ञानी या सम्यगदृष्टि ही कर सकता है ।
उस वक्ता के प्रयोजन विशेष को दृष्टि में रखकर बोला गया वह वाक्य ही श्रोता के जीवन में हित उत्पन्न कर सकता है, या यो कहिये कि श्रोता को वस्तु व्यवस्था समझाने में सफल हो सकता है, अर्थात् उसे वस्तु स्वरूप के निकट ले जाने में सफल हो सकता है। परन्तु यह तभी सम्भव है जबकि श्रोता स्वयं, प्रमुख करके कहे गये एक एक अग को समझकर हृदय कोष मे जमा करता जाये, और इस प्रकार धीरे धीरे क्रम से सम्पूर्ण अगो को धारण करके, अन्त मे जाकर उन्हे परस्पर मे मिलाकर एक रस कर दे । जू जू वह आगे आगे के अगो को धारण करेगा तू तू उसे "वस्तु के निकट जा रहा है" ऐसा कहा जायेगा। इस लिये उपरोक्त प्रयोजन वश बोला गया नय वाक्य श्रोता को वस्तु के निकट पहुंचाने या ले जाने की शक्ति रखता है, और इसी से अत्यत उपकारी है।
क्योकि प्रमाण ज्ञान के एक अग को प्रमुख करके बोला जाता है, इसलिये इसे एकात भी कहते है । उस एक अंग को कहते हुए शेष अंग गौणा रूप से निषिद्ध भले हो गये हों, पर अभाव रूप से निषिद्ध