________________
६. नय की स्थापना
१७०
१. वक्ता का प्रयोजन
योग्य नही, क्योंकि मेरे लिये इस अवस्था मे इसका अपनाया जाना असम्भव है," मै उसे वीरप्रभु के भूतकाल का ही चित्र दर्शाऊंगा और यही कहूगा कि “घबराता क्यो है, देख महावीर प्रभु का यह रूप । क्या वह पापी नही दिखते है तुझे ? सम्भवत. वह इस अवस्था मे तुझ से अधिक पापी हैं। जब वे ऊंचे उठ गये तो तू क्यो उठ न सकेगा। निराशा तज, साहस ठान, आलस हान, और आगे बढ़ । तू वीरों की सन्तान है" यहा वीर प्रभु को पापी बनाने का प्रयोजन क्या उन्हे गाली देना है, या श्रोता को ऊचे उठाना ? इसी प्रकार जब किसी श्रोता को आलस मे पड़ा देखता हू, जोकि यह समझ बैठा है कि काफी धर्म कर लिया, और अधिक करके क्या करूगा, तो उसे वीर प्रभु के वर्तमान काल का चित्रण दर्शाऊंगा, और यही कहूगा कि "बस इतने पर ही थक गया ? अरे ! तुझे तो यहां पहुचना है जिस अवस्था मे कि वीरप्रभु आज है । तेरा गुमान मिथ्या है। अपने जीवन और इनके जीवन को मिलाकर देख, कहा है तू ? भाई उठ ! अभी बहुत कुछ करना शेष है । सन्तोष न कर ।" यहां भी तो उसे ऊंचा उठाने का वही प्रयोजन है ।
इसी प्रकार, ऐसे श्रोता को देखकर जोकि बाह्य चारित्र, व्रत, वेष, तप, उपवास, शुद्ध भोजनादि की क्रियाओं पर अभिमान करके अपने को मोक्ष मार्गी या शान्ति पथगामी मान बैठा है, उसको तो अभेद रत्नत्रय मार्ग मे से ज्ञानवाला अग ही पृथक निकालकर प्रमुखत. दर्शाऊगा, और यही कहूगा कि तेरी यह सब क्रियाये निरर्थक है, उन्हे छोड़ दे, ज्ञान प्राप्त कर, वही तेरी उन्नति का मार्ग है, यह बाह्य क्रिया कलाप नही । यह फोकट है बेकार है। क्या यहा चारित्र छडाना अभीष्ट है या उसे उन्नति पथ पर लगाना ? इसी प्रकार यदि कोई ज्ञान मात्र प्राप्त करने मे और अधिकाधिक ग्रन्थों का अध्ययन करने मात्र मे सन्तोष पा गया हो, तो ऐसे व्यक्ति के सामने यही कहूगा कि भाई! यह ज्ञान तेरे कुछ काम मे आने वाला नही । यह