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७. आत्मा व उसके अग
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६. शुद्धा शुद्ध भाव
परिचय विलायत मे जीता जागता विद्यमान है ही" इस प्रकार को दृढ़ श्रद्धा अदर मे पड़ी रहना । उसमे पोचता न आना, उसमे कम्पन न आना, उस मे कुछ धुन्धला पन न आना । इसी प्रकार रागात्मक लौकिक कार्य करते हुए भी “यह का कार्य मेरे लिये अहित कर है" वीतरागता ही हितकर है । ऐसा निश्चल भाव अन्दर में बने रहना । श्रद्धा का पूर्ण अशुद्ध भाव है विवेक का पूरा अभाव, अहित मे हित की श्रद्धा जैसे किः "धन ही मेरे लिये तो हित कारी है, मुझ शान्ति नही चाहिये इत्यादि" । इस का शुद्धाशुद्ध भाव है उतार चढाव रूप । चिन्ताये बढ जाने पर तो "अरे आज ही छोडकर भाग इस धधे को, इससे बड़ा अहित और कुछ नही हो सकता" एसा सा भाव प्रगट हो जाना । और चिन्ताय कुछ कम होने पर तथा विष यो की उपलब्धि हो जाने पर वह भाव दब सा जाना, उपरोक्त प्रकार प्रगट न हो पाना । और इस प्रकार बराबर उसकी दृढता मे हानि वृध्दि होते रहना श्रद्धा का शुद्धाशुद्ध भाव है।
- वेदना का पूर्ण शुद्ध भाव है पूर्ण शान्ति मे निश्चल स्थिति, इच्छाओं का पूर्ण अभाव । पूर्ण अशुद्ध भाव है पूर्ण अशान्ति, इच्छाओं, मे सदा जलते रहना । ओर शुद्धाशुद्ध भाव है अशाति मे कुछ कभी और कुछ कुछ शाति की प्रतीति जो कभी बढ़ जाती है और कभी घट जाती है।' !'
शुद्ध भाव की व्यक्ति दो प्रकार की हो सकती है। एक थोडी देर के लिये पूर्ण शुद्ध होकर फिर अशुद्ध या शुद्धाशुध्द हो जाने वाली जैसे कि गदला पानी गाद बैठने पर थोडी देर को पूर्ण शुद्ध हो जाता है पर हिलने पर फिर अशुद्ध हो जाता है । और दूसरी सर्वदा के लिये पूर्ण शुद्ध होकर फिर कभी भी अशुद्ध या शुद्धाशुद्ध होने की सम्भावना न रहे ऐसी शुद्ध । जैसा कि उबाल कर सुखाया गया गहू का दाना सदा के लिये अब उगने की शक्ति को खो बैठा है ।