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साम्य है, वह अवलोकनीय है, यथा:
(1)7 वीं शती के कविराज मयूर की भाषा-शैली शैली-विज्ञान के विद्वानों के अनुसार दोनों ही स्तोत्रों में दृष्टिंगत होती है, जो उन्हें समकालीन प्रमाणित करती
(2) मङ्गलाचरण एवं प्रतिज्ञा की प्रक्रिया उभयत्र (दोनों में) तुल्य है। (3) समापन-काव्यों में मानतुङ्ग शब्द श्लेषरूप में प्रयुक्त हुआ है। (4) आठ में से सात संकट दोनों में समान हैं। (5) दोनों स्तोत्रों में दीर्घ-समास-युक्त पद हैं। (6) चित्रण भिन्न होने पर भी चित्रण-शैली दोनों स्तोत्रों में एक-जैसी है।
(7) छन्द एवं भाषा पृथक् होते हुए भी उभयत्र साहित्यिक लयबद्धता | समान है।
इन समानताओं के होने पर भी एकाध विद्वान् दोनों स्तोत्रों के कर्ता एक थे, इस पर सहमत नहीं। अस्तु।
भयहर-संथवो की अन्तर्ध्वनि कुछ इस प्रकार है:
मङ्गलाचरण एवं प्रतिज्ञाः- प्रणाम करने वाले देव-समूह के मुकुटों की मणि-किरणों से व्याप्त मुनि-चरणों को नमस्कार करके मैं (स्तुतिकर्ता) महान् भयों को हरनेवाली स्तुति करूंगा।
कुष्ठ-व्याधि-भय-निवारणः- अग्नि-तुल्य कुष्ठ-महारोग की चिनगारियों से जिनका सारा शरीर दग्ध हो गया है, जिनके हाथ, पैर, नख और मुख सड़े हुए हैं, जिनकी नासिका अन्दर धंस गयी है और जिनकी कान्ति समाप्त हो चुकी है, वे विरूप रोगी भी आपकी चरणाराधना के जल का अंजलिमात्र सिंचन पाकर कान्तिमान्, नीरोग एवं सुंदर बन जाते है, जैसे दावानल से आहत हुये पर्वतीय-वृक्ष वर्षा-ऋतु में पुनः हरे-भरे होकर शोभित होने लगते हैं।
समुद्र-भय-निवारण:- जो मनुष्य पार्श्व-जिनेन्द्र के चरणों को सदैव नमस्कार करते हैं, वे ऊँची तरंगों की भयंकर-ध्वनि वाले तथा प्रचण्ड पवन द्वारा क्षुभित समुद्र में अखण्डित जलयान-सहित अपने इष्ट-तट तक सुरक्षित पहुँच जाते हैं, भले ही जलयान के संचालक ने उसे हड़बड़ी और घबराहट के कारण भाग्य
भरोसे छोड़ दिया हो।
दावाग्नि-भय-निवारण:- जब तीव्र वायु से वन की अग्नि अत्यधिक भड़क उठती है और उसकी ज्वालाएँ सभी वृक्षों पर व्याप्त हो जाती हैं, तब वहाँ से सुरक्षित निकल पाना दुष्कर हो जाता है और वन्य-प्राणियों की स्थिति दयनीय हो जाती है। ऐसे में भोली हिरणियों की चीत्कार-ध्वनि अत्यन्त भयावह जान पड़ती है, लेकिन त्रिभुवनवर्ती विस्तृत क्षेत्र को शीतलता प्रदायक जिनेन्द्र-चरणों का स्मरण करने वाले भक्तों को वह दावानल भयभीत करने में समर्थ कहाँ ?
सर्प-भय-निवारण:- हे भगवन् ! आपके नामाक्षर स्पष्टतः सिद्ध किए हुए मन्त्र-तुल्य हैं। उसके प्रभाव से जो विशालकाय हैं एवं सर्प-विष-संबन्धी सात भयंकर वेगों को जिन्होंने दूर फेंक दिया है ऐसे मनुष्य उस नागराज को भी एक क्षुद्र-कीट जैसा समझते हैं, जिसकी आकृति भीषण है, फन फैला हुआ है, नेत्र लाल चिनगारी के समान चमकीले हैं, शरीर नवीन मेघ-सम काला है, जीभ लपलपा रही है और क्रोध भड़का हुआ है।
दुष्ट /चोर-भय-निवारण:- हे नाथ ! आपको प्रणाम करने मात्र से भक्तजन उन भयंकर वनों से सुरक्षित निकल आते हैं, जहाँ भीलों का एवं असभ्य और क्रूर वन्य जन-जाति "पुलिंद' का निवास है, जहाँ लुटेरों का डेरा है, जहाँ हृदय को कम्पित करने वाली तेन्दुए की ध्वनि कानों तक आ रही है एवं लुटे हुए उदास और भयभीत यात्रियों के समूह मुँह लटकाए हुए पूर्वमेव विद्यमान हैं।
सिंह-भय-निवारण:- हे प्रभो ! आपके चरण-नख, मणि-माणिक्यों जैसे सुन्दर हैं और चूँकि आपके वचन मोह-शत्रु के निवारणार्थ आयुध-तुल्य हैं, अत: बड़े-बड़े राजा-महाराजा आपके चरणों को साष्टांग प्रणाम करते हैं। जिन्हें वह वचनरूपी आयुध प्राप्त है, वे उस सिंह को भी नगण्य मानते हैं, जो प्रज्वलित अग्नि-सम नेत्रों वाला है, जिसने वज्र के आघात-तुल्य नख-प्रहार द्वारा गजराज के विशाल कुम्भस्थल को फाड़ डाला है, जिसका शरीर विकराल है और जो अपना मुँह फाड़े हुये है।
हस्ति-भय-निवारण:- हे मुनियों के स्वामिन् ! जो भव्य जीव आपके चरणों में सम्यक् लीन हैं, एकाग्र हैं, वे उस भीषण गजराज को विशेष नहीं |