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विकट शत्रु-सेना आपके कीर्तन से विघट जाती है।
चरम-सीमा को प्राप्त युद्ध में भी भक्त का पक्ष विजयी होता है।
कुन्तान-भिन्न-गज-शोणित-वारि-वाह
वेगावतार-तरणातुर-योध-भीमे। युद्धे जयं विजित-दुर्जय-जेय-पक्षास्त्वत्पाद-पङ्कज-वनाश्रयिणो लभन्ते ।। 43॥
वल्गत्तुरङ्ग-गज-गर्जित-भीम-नादमाजौ बलं बलवतामरि-भूपतीनाम्।
उद्यद्दिवाकर-मयूख-शिखापविद्धं, त्वत्कीर्तनात्तम इवाशु भिदामुपैति ।। 42॥
अन्वयार्थ (आजी) रण-क्षेत्र में (वलात्तुरङ्ग-गज-गर्जित-भीम-नाद) सरपट दौडने वाले घोड़ों तथा हाथियों की चिंघाड़ों से जिसमें भयानक ध्वनि है, ऐसी (बलवतां अरि-भूपतीनां) बलिष्ट शत्रु-राजाओं की (बलं) सेना, (त्वत्कीर्तनात्) आपके कीर्तन से (उद्यदिवाकर-मयूख-शिखापविद्धं तमः इव) उगते सूर्य की किरणशिखाओं द्वारा दूर हटाये गये अन्धकार के समान (आशु) शीघ्र ही (भिदा उपैति) भेदन को प्राप्त हो जाती है।
अन्वयार्थ (कुन्तान-भिन्न-गज-शोणित-वारि-वाह-वेगावतार-तरणातुर-योध-भीमे युद्धे) जो भालों की नोक द्वारा फाड़े गये हाथियों के रक्तरूपी जल-प्रवाह में तेजी के साथ घुसने और बाहर निकलने के लिये उतावले हुए योद्धाओं के कारण भयानक है, ऐसे युद्ध में (त्वत्पाद-पङ्कज-वनाश्रयिणः) आपके चरणरूप कमल-वन का आश्रय पाने वाले मनुष्य, (विजित-दुर्जय-जेय-पक्षाः) जिन्होंने कठिनाई से जीतने योग्य शत्रु-पक्ष को पराजित किया है, ऐसे होकर (जयं लभन्ते) विजय को प्राप्त होते हैं।
पद्यानुवाद जहाँ हिनहिनाहट घोड़ों की जहाँ रहे हाथी चिंघाड़, मची हुई है भीषण ध्वनि जो कानों को दे सकती फाड़। वह सशक्त रिपु-नृप की सेना तव गुण-कीर्तन से तत्काल, विघटित होती जैसे रवि से विघटित होता तम विकराल॥
पद्यानुवाद भालों से हत गजराजों के लह की सरिता में अविलंब,
भीतर-बाहर होने वाले योद्धा ला देते हैं कंप, उस रण में तव पद-पंकज का होता है जिनको आधार, विजय-पताका फहराते वे दुर्जय-रिपु का कर संहार।।
अन्तर्ध्वनि हे अरिहंत ! युद्ध-क्षेत्र में हाथी-घोड़ों की भयंकर ध्वनि से युक्त प्रबल शत्रु-सेना आपके कीर्तन से रवि-किरणों के द्वारा खंडित तिमिर के समान, तत्काल तितर-बितर हो जाती है। विपत्तियों की सेना भी तो आपके ही कीर्तन से नष्ट होती है। मोहरूपी वैरी राजा की सेना आपके कीर्तन के बिना कैसे भिद सकती है?
अन्तर्ध्वनि हे कर्म-शत्रु-हन्ता । यदि युद्ध की स्थिति अधिक विकट हो और शस्त्रों से विदीर्ण हाथियों की रक्त-सरिता में वेग-पूर्वक घुसने और पार करके बाहर आने वाले उतावले योद्धा मरने-मारने में संलग्न हों, तो भी आपके चरणों को शरण बनाने वाले ही दुर्जय शत्र को हराकर विजय-पताका फहराते हैं। मोह-शत्रु कितना भी उपद्रव क्यों न मचाए, पर अन्तत: आपका भक्त ही विजयी होता है।
संपादकीय टिप्पणी- वि.सं. 1563 के गुटके में जो बसवा ग्राम का है और बौसा ग्राम के एक गुटके में भी 'बलवतामरि भूपतीनाम्' यह पाठ है (जैन निबन्ध रत्नावली)। 1. बलवतामपि भूपतीनाम्