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दिव्यध्वनि प्रातिहार्य आश्चर्यकारी है।
दर्शक के सप्त-भव दर्शानेवाला आपका आभामंडल अनोखा है।
शुम्भत्प्रभा-वलय-भूरि-विभा' विभोस्ते, लोक-त्रये द्युतिमतां द्युतिमाक्षिपन्ती।
प्रोद्यद्दिवाकर-निरन्तर-भूरि-संख्या', दीप्त्या जयत्यपि निशामपि सोम-सौम्या ॥34॥
अन्वयार्थ जो (दीप्त्या) उज्ज्वलता की अपेक्षा (प्रोद्यदिवाकर-निरन्तर-भूरि-संख्या अपि)उगते हुए अन्तराल-रहित सूर्यों की भारी संख्यावाली होकर भी (सोमसौम्या)चन्द्रमा-सम सुहावनी है तथा (लोक-त्रये) तीनों जगत में (द्युतिमतां) प्रकाशमान पदार्थों की (धुतिं आक्षिपन्ती) कान्ति को लज्जित करनेवाली है, ऐसी (ते विभोः) आप विभु के (शुम्भत्प्रभा-वलय-भूरि विभा) देदीप्यमान भामंडल की महान आभा (निशां अपि) रात्रि को भी (जयति) पराजित करती हैअंधकार को नष्ट करती है।
स्वर्गापवर्ग-गम-मार्ग-विमार्गणेष्टः, सद्धर्म-तत्त्व-कथनैक-पटुस्त्रि-लोक्याः ।
दिव्य-ध्वनिर्भवति ते विशदार्थ-सर्वभाषा-स्वभाव-परिणाम-गुणैः' प्रयोज्यः॥35॥
अन्वयार्थ (ते दिव्य-ध्वनि:) आपकी दिव्य-ध्वनि (स्वर्गापवर्ग-गम-मार्ग-विमार्गणेष्ट:) स्वर्ग और मोक्ष जाने के मार्गों का अनुसन्धान करनेवालों के लिये इष्ट, (त्रिलोक्याः )तीनों जगत को (सद्धर्म-तत्व-कथनैक-पटुः) वास्तविक धर्म का स्वरूप बताने में सर्वोपरि निपुण तथा (विशदार्थ-सर्व-भाषा-स्वभाव-परिणाम-गुणैः) स्पष्ट-अर्थ-सहित होना एवं सर्व-भाषारूप परिवर्तित होना, इन गुणों से (प्रयोज्य:) प्रयुक्त होने योग्य (भवति) होती है।
पद्यानुवाद विभो ! आपके जगमग-जगमग भामंडल की प्रभा विशाल, त्रि-भुवन में सबकी आभा को लज्जित करती हुई त्रिकाल। उज्ज्वलता में अन्तराल बिन अगणित उगते सूर्य-समान, तो भी शशि-सम शीतल होती, हरे निशा का नाम-निशान
पद्यानुवाद स्वर्ग-लोक या मोक्ष-धाम के पथ के खोजी को जो इष्ट, | सच्चा धर्म-स्वरूप जगत को बतलाने में परम विशिष्ट । प्रगट अर्थ-युत सब भाषामय परिवर्तन का लिये स्वभाव, |दिव्य आपकी वाणी खिरती समवसरण में महाप्रभाव।
अन्तर्ध्वनि हे प्रभा-पुंज प्रभु । आपके भामंडल की आभा अन्तराल-विहीन एकसाथ उगते अनेक सूर्यो-सी उज्ज्वल होकर भी चन्द्रमा-सम शीतल है तथा विश्व के सभी प्रकाशमान पदार्थों की कान्ति को लजित करनेवाली है। वह रात्रि पर विजय प्रास करती है अर्थात् उससे अन्धकार पूर्णतः विलीन हो जाता है।
अन्तर्ध्वनि हे हितोपदेशक | आपकी दिव्य-ध्वनि, स्वर्ग-मोक्ष का मार्ग अर्थात् श्रावक-मुनि-धर्म खोजने वालों को इष्ट, तीनों जगत के लिये सच्चे धर्म का स्वरूप बतलाने में अद्वितीय और स्पष्ट अर्थ को लिये हुए सर्व-भाषारूप बदलने में समर्थ होती है। वह एक योजन तक समानरूप से व्याप्त होती है और श्रोताओं को उनकी पात्रता एवं जिज्ञासानुसार इष्टोपदेश प्रदान करती है, तथा वे श्रोता भी अपनी योग्यतानुसार स्वर्ग और मोक्ष के मार्गदेशसंयम या सकल-संयम को अंगीकार करते हैं। आपकी ध्वनि ॐकार-नादरूप अनक्षरी होती है तथा सर्वांग से प्रस्फुटित होती है। 1. गुण-प्रयोज्य:
1, चञ्चत्प्रभा-वलय-भूरि-विभा 2. लोक-त्रय-द्युतिमतां 3. संख्यां 4. सौम्याम्