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________________ आप विलक्षण ज्योतिर्मय दीपक हैं। आपके सम्मुख सूर्य भी निस्तेज है! निर्धूम-वर्तिरपवर्जित-तैल-पूरः', कृत्स्नं जगत्त्रयमिदं प्रकटीकरोषि। गम्यो न जातु मरुतां चलिताचलानां, दीपोऽपरस्त्वमसि नाथ! जगत्प्रकाशः।। 16॥ अन्वयार्थ (निर्धूम-वर्तिः)जिसमें धुंआ एवं बत्ती नहीं तथा (अपवर्जित-तैल-पूरः) तेल नहीं भरना पड़ता, ऐसे आप (इदं कृत्स्नं जगत्त्रयं) इस समूचे त्रिभुवन को (प्रकटीकरोषि) प्रकट प्रकाशमान करते हैं। आप (जातु) कभी (चलिताचलानां मरुतां) पर्वतों को हिला डालने वाली हवाओं के (गम्यान) प्रभाव में आने योग्य नहीं, अत: (नाथ) हे नाथ । (जगत्प्रकाश: त्वं) विश्व में है प्रकाश जिसका, ऐसे आप (अपर: दीपः असि) अद्वितीय दीपक हैं। नास्तं कदाचिदुपयासि न राहु-गम्यः, स्पष्टीकरोषि सहसा युगपजगन्ति। नाम्भोधरोदर-निरुद्ध-महा-प्रभावः, सूर्यातिशायि-महिमासि मुनीन्द्र ! लोके ॥17॥ अन्वयार्थ आप (न कदाचित् न कभी (अस्तं उपयासि) अस्त को प्राप्त होते हैं, (न राहुगम्यः) न राहु के निगलने योग्य / ग्रहण लगने योग्य हैं। (युगपत्) एक साथ (जगन्ति) तीनों जगत् को (सहसा) अनायस ही (स्पष्टीकरोषि) प्रकाशित करते है, तथा (नाम्भोधरोदर-निरुद्ध-महा-प्रभाव:) बादलों के भीतर रुक गया है महान तेज जिसका, ऐसे नहीं हैं, अतः (मुनीन्द्र) हे मुनीन्द्र । (लोके) लोक में, आप (सूर्यातिशायि-महिमा असि) सूर्य से भी बढ़कर महिमावान् हैं। पद्यानुवाद प्रभो। आपमें धुंआ न बत्ती और तेल का भी ना पूर, तो भी इस सारे त्रि-भुवन को आभा से करते भरपूर। बुझा न सकती विकट हवाएँ जिनसे गिरि भी जाते काँप, अतः जिनेश्वर ! जगत-प्रकाशक अद्वितीय दीपक हैं आप॥ पद्यानुवाद अस्त आपका कभी न होता राहु बना सकता ना ग्रास, एक साथ सहसा त्रि-भुवन में बिखरा देते आप प्रकाश। छिपे न बादल के भीतर भी हे मुनीन्द्र ! तव महाप्रताप, अतः जगत में रवि से बढ़कर महिमा के धारी हैं आप॥ अन्तर्ध्वनि अहो नाथ ! आप कोई विलक्षण दीपक हैं, क्योंकि आप धुआँ, बत्ती एवं तेल से रहित होकर भी समस्त विश्व को अपनी कैवल्य-ज्योति से प्रकाशित करते हैं तथा भीषणतम तूफान भी आपको बुझा नहीं सकता। अन्तर्ध्वनि हे मुनीन्द्र ! इस लोक में आपकी महिमा सूर्य से भी बढ़कर है, क्योंकि सूर्य की भांति आप कभी अस्त नहीं होते, आप पर ग्रहण नहीं लगता, न बादल छाते हैं, और आपका ज्ञान-तेज इतना अधिक है कि उससे तीनों लोक एकसाथ प्रकाशित हो उठते हैं! 1. निर्धूम-वर्तिरपि वर्जित-तैल-पूर:
SR No.009939
Book TitleMantung Bharti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhyansagar
PublisherSunil Jain
Publication Year2005
Total Pages53
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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