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मेरा प्रयास अविचारित है।
मंगलाचरण एवं प्रतिज्ञा
बुद्ध्या विनापि विबुधार्चित-पाद-पीठ' !
स्तोतुं समुद्यत-मतिर्विगत-त्रपोऽहम्। बालं विहाय जल-संस्थितमिन्दु-बिम्बमन्यः क इच्छति जनः सहसा ग्रहीतुम् ।। 3॥
पद्यानुवाद भक्त-सुरों के नत मुकुटों की, मणि-किरणों का किया विकास, अतिशय विस्तृत पाप-तिमिरका किया जिन्होंने पूर्ण विनाश।
युगारंभ में भवसागर में डूब रहे जन के आधार, श्री-जिन के उन श्री-चरणों में वंदन करके भली प्रकार। सकल-शास्त्र का मर्म समझ करसुरपति हुए निपुण मतिमान् गुण-नायक के गुणगायक हो, किया जिन्होंने प्रभु-गुण-गान।
त्रि-जग-मनोहर थीं वेस्तुतियाँ, थीं वे उत्तम भक्ति-प्रधान अब मैं भी करने वाला हूँ, उन्हीं प्रथम-जिन का गुण-गान॥
अन्वयार्थ (विबुधार्चित-पाद-पीठ) हे देव-पूजित चरण-वेदिका के धारक भगवन् !(बुद्ध्या विनापि ) इन्द्र जैसी बुद्धि के बिना भी (अहं विगत-त्रपः) मैं निर्लज (स्तोतुं) स्तुति करने के लिये (समुद्यत-मतिः) उत्कण्ठित मति वाला हो रहा हूँ । (बालं विहाय) बालक को छोड़ (अन्यः कः जनः) दूसरा कौन मनुष्य (जल-संस्थितं) पानी में पड़े (इन्दु-विम्बं) चन्द्रमा के प्रतिबिम्ब को (सहसा) एकाएक (ग्रहीतुं इच्छति) पकड़ना चाहता है?
अन्तर्ध्वनि ज्ञान-कल्याणक के पश्चात् नम्रीभूत देव-समूह सर्वज्ञत्व को, विस्तृत मोहनीय कर्मरूप पाप-तिमिर का विनाश वीतरागता को तथा भव-समुद्र में डूबने वालों को तारना हितोपदेशिता को सूचित करता है। सर्वज्ञ, वीतराग एवं हितोपदेशी आदि-जिन के चरण-युगल को नमस्कार करके अब मैं भी उन जगत्-पूज्य की स्तुति करूंगा, जो पहले सर्व-शास्त्रों के मर्मज्ञ, बुद्धिमान और स्तुति करने में चतुर इन्द्रों द्वारा उत्तम एवं मधुर स्तोत्रों से वंदित हुए थे।
पद्यानुवाद ओ सुर-पूजित-चरण-पीठ-धर प्रभुवर ! मैं हूँ बुद्धि-विहीन, स्तुति करने चल पड़ा आपकी हूँ निर्लज्ज न तनिक प्रवीण। जल में प्रतिबिम्बित चन्दा को बालक सचमुच चन्दा जान,
सहसा हाथ बढ़ाता आगे ना दूजा कोई मतिमान्॥
अन्तर्ध्वनि हे पूज्य-पाद ! इन्द्र जैसी बुद्धि के बिना, आपकी स्तुति करने को उत्कंठित होना मेरा बाल-हठ है, निर्लज्जता है। पानी में पड़े चंद्रमा के प्रतिबिंब पर बालक ही झपटता है, न कि कोई बुद्धि-सम्पन्न मनुष्य।
2 विबुधार्चित-पाद-पीठं
1वीर छन्द (16,15 मात्रा)