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पानीपत लौट आये कि "प्रभु कृपा से मेरा कर्त्तव्य पूरा हुआ, इस कर्त्तव्य की पूर्ति द्वारा मेरा पितृ यज्ञ पूरा हुआ, इससे बड़ी बात मेरे लिये और क्या हो सकती है, इसी में मुझे सन्तोष है" ।
इस व्यापारको छोड़कर अब आप शान्ति की खोज का व्यापार करने लगे । प्रारम्भ में ही इस रहस्य का कुछ-कुछ स्पर्श होने लगा और आठ वर्ष के अल्पकाल में उसे हस्तगत करने में सफल हो गए । सन् १६५० में आपने स्वतन्त्र स्वाध्याय प्रारम्भ की, सन् १९५४-५५ में उसका मञ्जन करने के लिये सोनगढ़ गए, ज्ञान के साथ-साथ अनुभव तथा वैराग्य की तीव्र बृद्धि होती गई, यहाँ तक कि सन् १९५७ में अणुव्रत धारण करके गृह त्यागी हो गए। आप घर की बजाय मन्दिर में रहने लगे और भोजन चर्या के विषय में सरलता धारण कर ली, जो बुलाता उसी के यहाँ जाकर खा लेते । धर्म के प्रति अटूट श्रद्धा तथा अपने भीतर डूबकर प्रत्येक विषयको सक्षात् करने का दृढ़ संकल्प इत्यादि कुछ दैवी गुणों के कारण इस मार्गपर आपकी प्रगति बराबर बढ़ती गई, और भाद्रपद शु० ३ वि० सं० २०१६ सन् १९६१ को आपने ईसरी में क्षुल्लक दीक्षा धारण कर ली । शारीरिक स्वास्थ अनुकूल न होते हुए भी आपने कभी बाह्याचार की उपेक्षा नहीं की । अन्तरंग साधना के साथ बाह्य साधना की इतनी सुन्दर मैत्री 'बहुत कम स्थानों पर देखने को मिलती है । समय-समय पर किया गया आपका उत्तरोत्तर वृद्धिगत परिग्रह- परिमाण, जिह्वा इन्द्रिय सम्बन्धी नियन्त्रण तथा पोष माघ की कड़कड़ाती सर्दियों में पतली सी धोती तथा सूती चादर में रहना आपकी आचार दृढ़ता तथा कष्ट-सहिष्णुता के साक्षी हैं ।
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मौन-वृति तथा एकान्त-प्रियता आपकी जन्मजात प्रकृतियां हैं । विद्यार्थी जीवन में भी आप प्रायः बहुत कम बोलते थे और घर तथा स्कूल के अतिरिक्त अन्यत्र कहीं नहीं जाते थे । यही कारण है कि आपके मित्रों की संख्या कभी एक या दो से अधिक नहीं हो सकी।
शरीर सदा दुर्बल तथा अस्वस्थ रहा, बचपन से ही प्राय: टाइफाइड के
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