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( १२ ) विद्वान तथा श्रेष्ठीजन संगीति के रूप में किसी एक स्थान पर एकत्रित होकर सर्व-सम्मति से इसे प्रमाण स्वीकार करें। काम कठिन ही नहीं असम्भव जैसा था, क्योंकि परस्पर विरोधी सम्प्रदायों के प्रतिष्ठित गुरुओं का एक स्थान पर एकत्रित होना कल्पनातीत था, और सबका निविरोध रूप से किसी एक व्यक्ति की कृति को स्वीकार कर लेना उससे भी अधिक असम्भव था । परन्तु एक तो भगवान वीर की २५००वीं निर्वाण जयन्ती का पावनयोग और दूसरे वर्णीजो की प्रेम समता तथा नम्रता पूर्ण अनाग्रही वृति, इन दोनों बातों ने असम्भव को सम्भव बना दिया। ३० नवम्बर सन् १९७४ को देहली में सगीति हुई। सभी प्रधानाचार्यों के अतिरिक्त दूर दूर से आकर लगभग २५०-३०० विद्वान तथा श्रेष्ठीजन एकत्रित हुए। थोड़ा विचार विनिमय के पश्चात् सबने प्रेमपूर्वक, वर्णीजी के द्वारा संकलित तथा सम्पादित 'समण सुत्त" नामक ग्रन्थ को मान्यता प्रदान कर दी, जो सन् १९७५ में प्रकाशित होकर जनता के हाथ में
आया। प्रथम संस्करण तुरंत समाप्त हो गया और इसी बर्ष पुनः ग्रन्थ का द्वितीय संस्करण निकलवाना पड़ा। कई भाषाओं में इसका अनुवाद हो चुका
यह कार्य अभी पूरा भी नहीं हुआ था कि पूज्य गणेश प्रसादजी वर्णी की जन्म शताब्दी आ गई। समाज का आग्रह हुआ कि इस अवसर पर पूज्य श्री की स्मृति में कोई एक आदर्श ग्रन्थ प्रकाश में आना चाहिये । ६-७ महिने के अल्प समय में ग्रन्थ तैयार हो गया। सन् १९५७ में 'वर्णी दर्शन' नाम से प्रकशित ५०० पृष्ठवाले इस ग्रन्थ में पूज्य गणेश प्रसादजी वर्णीकी पूरी जीवनी
और उनके सकल उपदेशों का सार निवद्ध है। विशेषता यह कि पूरे ग्रन्थ में कहीं एक भी शब्द आपने अपना नहीं जोड़ा है । सारा ग्रन्थ वर्णीजी के अपने शब्दों में संकलित किया गया है । अभी ठीक प्रकार से सांस भी लेने नहीं पाये थे कि 'शान्तिपथ प्रदर्शन' की बढ़ती मांग को देखकर बा० सुरेन्द्रनाथजी ने इस ग्रन्थ का नये सिरे से सस्कार करके तीसरी बार छपवा देने के लिये आपसे आग्रह किया। स्वास्थ का ध्यान न करते हुए निविश्राम परिश्रम द्वारा १९७६