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[ ६४ ] पर वस्तु से सुख की आशा मत करो।
१०-२६७ हे आत्मन् ! तू आज ही सुख हो जाय यदि इस विचार की दृढ़ता के लिये कमर कस लें - कि-में दूसरों का कोई नहीं और न मेरे कोई दूसरे हैं, मैं तो ज्ञानमात्र एकाकी हूँ, पर का परिणमन जो हो सो हो, मैं तो अपने स्वभावरूप ही रहूंगा।
११-२७७ तुम सुख से स्वयं परिपूर्ण हो, सुख के अर्थ पर
की प्रतीक्षा करके सुख की हत्या मत करो।
१२-३५८.विषय की चाह व कषाय को प्रवृत्ति जितनी कम होगी उतने ही सुखी रहोगे।
+ ॐ १३--४४१. रागद्व परहित परिणति हुए विना शाश्वत स्वाधीन सुख नहीं मिल सकता तथा पर द्रव्य में आत्मबुद्धि रहते हुए रागद्वषजन्य आकुलता नष्ट नहीं हो सकती, अतः हे आत्महितैपी ! अपनी जिद्द छोड़ और हित के मार्ग पर चल ।